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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? बस्ती को ठुकराकर विराट एक खुले मैदान में आ खड़ा हुआ। चारों ओर मानो अंधकार की प्रलय-वर्षा हो रही थी। इस काले अन्धकार को भेदता हुआ थोड़ा-थोड़ा आकाशी उजाला विराट को राह बता रहा था।
विराट के दिल में मंत्राधिराज श्री नमस्कार का "अजपाजप चालु था। इस जप में से बहती बेहद शक्ति के सहारे विराट विरान पथ काट रहा था।
विरान राह! काली मध्यरात्रि! हिंसक पशुओं के आक्रमण का भय! अनजान राह! और खुद अकेला!
इस कल्पना से ही विराट के चेहरे पर दहशत फैल जाती। किन्तु | यह दहशत का दावानल पुनः बुझ जाता। वह विचार करता, 'भले ही मैं
असहाय हूँ, और साथी-सगों से अलग हूँ, किन्तु महामंत्र मेरा रक्षण कर रहा है! फिर भय कैसा? भले ही मेरे आगे राह नहीं , पीछे कोई पगडण्डी नहीं और पास में कोई विरान रास्ता भी नहीं, फिर भी एक फरिस्ता मेरी अंगुली पकड़कर चला रहा है! महामंत्र मेरे आगे तेज गति से दौड़ रहा है! अंधेरी रात में आई विपत्तियों के बीच समुद्र में भी "दादा" आदीश्वर का ध्रुव तारा मेरे जहाज को चला रहा है, फिर दहशत कैसी? फिर भय कैसा?'
रात्रि काफी बीत चुकी थी! विराट भी अब दौड़-दौड़कर थक गया | था। उसके कदम किसी विश्रामस्थल की खोज में थे। उसके नेत्र भी अब थोड़े आराम को चाह रहे थे। कदम आगे बढ़ने से मना कर रहे थे। फिर भी आगे बढ़े बिना छुटकारा नहीं था।
विराट टेकरी के किनारे-किनारे चलकर अब जंगल में आ चुका था। पथ अभी बहुत लम्बा था। मंजिल अभी तो दूर-बहुत दूर थी। फिर भी मंजिल को पाना अनिवार्य था। विराट ने चारों ओर नजर फेंकी, किन्तु आसपास कोई विश्राम कर सके ऐसा स्थान दिखाई नहीं दिया! उसने दूर-सूदूर नजर दौड़ाई, तो एक छोटी-सी देहरी जैसा कुछ आंख के आगे दिखाई दिया।
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