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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
गाड़ी के होर्न की धीमी आवाज और बहुत ही कम प्रकाश हमारी आंखों को आशा की किरण बताकर अदृश्य हो जाते थे। एकाध गाड़ी यहाँ आये तो ! किन्तु यह संभव कहाँ था?
मध्यरात्रि हुई, ना हुई, डाकू वापिस तैयार हो गये। एकदम प्रयाण की तैयारी हो गयी। हमें भी तैयार किया गया।
मध्यरात्रि की कठिनाई भरी मुसाफिरी वापिस शुरु हुई। दूर-दूर सड़क की दिशा की ओर बढ़ रहे हों ऐसा हमें आभास हुआ। गाड़ी का होर्न सुनते ही डाकू खड़े रह जाते थे। थोड़ी देर बाद सड़क आयी। हम सब बहुत ही सावधानी से सड़क पार कर एक खेत के पास खड़े रहे। लगभग तीन - चार घण्टों की भागदौड़ में आराम का अनुभव ही नहीं हुआ।
खेत गन्ने का था। फसल बहुत घनी एवं उन्नत थी। डाकू उसमें घुस गये। वह थोड़ी देर जाकर खड़े रहे। गन्ने की फसल चारों ओर खड़ी थी। डाकू किले के बीच खड़े हों, ऐसी निर्भयता अनुभव कर रहे थे। वहीं सोने का आदेश दिया।
हम सभी सो गये। कठोर परिश्रम किया हुआ था, इसलिए नींद जोरदार आयी। दूसरे दिन का सूर्योदय हुआ, तब यातना भरे चौबीस घण्टे पूरे होने का संतोष हम न मान सके, क्योंकि अब आनेवाली तकलीफों से हम अनजान थे। चंबल की घाटियों में दौड़धूप चालु ही रहा। दूसरा दिन पूरा हो गया। तीसरा एवं चौथा दिन भी उदय होकर अस्त हो गया । पांचवा दिन भी आया और गया किन्तु चंबल की घाटी हमें लम्बी और अधिक लम्बी लगने लगी। इतने सफर के बाद भी उसका अन्त नहीं आ रहा था। इन दिनों में हम डाकुओं के साथ ठीक-ठीक हिलमिल गये थे ।
हम चारों के नाम से डाकू परिचित हो गये थे। वो हमें राजेन्द्र, नवीन, सुरेश और चीनुभाई के नाम से ही बुलाते थे। हम भी ज्यादातर डाकुओं को नाम से ही बुलाते थे। गोपी नाम का जो सरदार था, उसे हम ठाकुर कहकर ही बुलाते थे। हमको उसकी मानवता का भी अनुभव हुआ था। हमारे में से एक के चप्पल जब टूट गये, तो दूसरे दिन हमें केनवास
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