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________________ पञ्चमं परिशिष्टम् शीलांक एकादशांगवृत्तिकार नहीं थे, अपितु आचारांग एवं सूत्रकृतांगके ही वृत्तिकार थे । अतएव प्रभावकचरित्रकारका उपर्युक्त उल्लेख निर्मूल प्रमाणित होता हो, तो प्रभावकचरित्रमें इसी स्थानपर शीलांकका दूसरा नाम कोट्याचार्य दिया है वह भी विशेष सार्थक प्रतीत नहीं होता । कहने का तात्पर्य यह है कि विशेषावश्यकभाष्यकी वृत्ति के रचयिता कोट्याचार्य का दूसरा नाम शीलांक नहीं है । पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री सागरानंदसरिजीने स्वसम्पादित कोट्याचार्यकृत विशेषावश्यक भाष्यकी वृत्ति की प्रस्तावनामें यह बात स्पष्ट की है। २. आचारांग-सूत्रकृतांगके वृत्तिकार शीलाचार्यने अपने नामका निर्देश आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्धकी वृत्ति, द्वितीय श्रुतस्कन्धकी वृत्ति तथा सूत्राकृतांगकी वृत्ति के अन्तमें किया है। इन तीनों स्थानो पर आचार्यने अपना नाम शीलाचार्य लिखा है तथा आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्धकी वृत्ति के अन्तमें 'निर्वृत्तिकुलीनशीलाचार्येण तत्त्वादित्यापरनाम्ना वाहरिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति' लिखकर अपना दूसरा नाम तत्त्वादित्य भी सूचित किया है। गुप्त या शकसंवत् के विषयमें निश्चय न हो सकने से तथा दूसरे विशेष प्रमाणों के अभाव में भिन्न भिन्न समय के आचार्योको एक ही व्यक्ति मानने के अनुमान होते रहे है, परन्तु अन्तिम निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है । आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्धकी टीका के अन्तमें ग्रन्थकारने रचनासमय गुप्त संवत् ७७२ लिखा है। जबकि द्वितीय श्रुतस्कन्धकी टीका के अन्तमें शकसंवत ७८४ और प्रत्यनतर में ७९८ लिखा है । 'यहाँ गुप्तसंवत् एवं शकसंवत् को एक मानकर शकको गुप्त लिखा गया है वस्तुतः दोनों संवत् शकसंवत के अर्थ में होने चाहिए' -ऐसी डॉ. फ्लीट आदि विद्वानों की कल्पना युक्तिसंगत प्रतीत होती है। इस दृष्टि से यदि प्रथम श्रुतस्कन्धकी वृत्ति के अन्तमें दिये गये गुप्तसंवत् को शकसंवत् ही मान लें, तो वि.सं. ९०७ में प्रथम श्रुतस्कन्धकी और वि.सं. ९१९ में द्वितीय श्रुतस्कन्धकी टीका लिखी गई होगी । बृहट्टिप्पनिकामें चउपन्नमहापुरिसचरियका रचनासमय वि.सं.९२५ दिया है । इस तरह दोनों शीलाचार्योने, समकालीन होने के कारण, अपनी अलग-अलग पहचानके लिए दूसरा नाम भी दिया होगा, ऐसा अनुमान सर्वथा असंगत नहीं लगता । इन दोनोंकी समकालीनता का और अभिन्नता का मुख्य आधार दोनों ग्रन्थोंके रचनासमयको ही कहा जा सकता है, किन्तु वस्तुतः ये दोनों भिन्न ही हैं । 'विमलांक' विमलसूरि, 'भवविरहांक' हरिभद्रसूरि तथा 'दाक्षिण्यचिह्न' उद्योतनसूरि इत्यादि विद्वानोंने अपने अपरनाम सूचित किये ही हैं, यद्यपि उनके समकालीन उस-उस नामके अन्य विद्वान् ज्ञात नहीं हो सके हैं । यहाँ तो हमें इतना ही सूचित करना है कि आचारांगटीकाकार और चउपन्नहापुरिसचरियके कर्ता शीलाचार्य अपने अपरनाम भिन्न-भिन्न सूचित करते हैं, और इसीलिए वे समकालीन होने पर भी एक नहीं हैं। पुरातत्त्वाचार्य मुनीश्री जिनविजयजी ने जीतकल्पसूत्रकी अपनी प्रस्तावनामें डॉ.फ्लीट, डॉ. पिटर्सन, डॉ. लोयमान तथा डॉ. हर्मन जेकोबी के मन्तव्यों का अनुवाद करते हुए कुवलयमालाकार उद्योतनसूरि के गुरु तत्त्वााचार्य एवं आचारांग-सूत्रकृतांग के वृत्तिकार शीलाचार्य-तत्त्वादित्य एक ही हैं ___ टि० १. डॉ. फ्लीटने आचारांगसूत्रटीका के रचना-स्थान गंभूताको खम्भात कहा है, किन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होगा । महेसाणा-पाटन रेल-मार्ग पर आनेवाले धीणोज स्टेशन से तीन-चार कोस दूर आये हुए गांभू नामक गाँवका प्राचीन नाम गंभता था । इसके सचक प्राचीन प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं । वायवर्शनी सुगमता भाटे प्रस्तुत २५ २४ मे छीमे.) तस्स य आयारधरो तत्तायरिओ त्ति नाम सारगुणे । आसि तवतेजनिज्जिय पावतमोहो दिणयरोव्व ॥ जो दुसमसलिलपवाहवेगहीरन्तगुणसहस्साण । सीलांग विडलसालो लग्गाण खंभोव्व निक्कंपो ॥ -कुवलयमालाप्रशस्ति, गा०८-९, रचना समय शक संवत्-७०० ।।
SR No.032460
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysundarsuri, Yashovijay Gani
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2011
Total Pages496
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size16 MB
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