SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आमुख प्रस्तुत उद्देशक के मुख्य प्रतिपाद्य हैं-यात्रिगृह आदि में अशन आदि का अवभाषण का प्रायश्चित्त, अभिहृत आहार का प्रायश्चित्त, भोज-विषयक विधान के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त, शरीर का परिकर्म का प्रायश्चित्त एवं परिष्ठापनिका समिति के कुछ अतिक्रमणों का प्रायश्चित्त आदि। भगवान महावीर का अहिंसा दर्शन सूक्ष्म एवं गंभीर विवेक से युक्त है। जहां पर भी उन्हें सूक्ष्म हिंसा को संभावना लगी, वहां उससे बचने का मार्ग उन्होंने ढूंढ निकाला। यही कारण है कि उन्होंने औद्देशिक, क्रीतकृत, नित्याग्र एवं अभिहृत अशन, पान आदि को वर्जनीय माना। अभिहत का शाब्दिक अर्थ है-सम्मुख लाया हुआ। अनाचीर्ण के रूप में इसका अर्थ है-साधु के निमित्त उसको देने के लिए गृहस्थ द्वारा अपने ग्राम, घर आदि से उसके सम्मुख लाया हुआ पदार्थ । स्वग्रामादेः साधुनिमित्तमभिमुखमानीतमभ्याहृतम्। प्रस्तुत उद्देशक में इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ उपलब्ध होता है कोई गृहस्थ भिक्षु के निमित्त तीन घरों के आगे से आहार लाए तो उसे लेने वाला अथवा लेने वाले की अनुमोदना करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। भाष्यकार के अनुसार सौ हाथ अथवा उससे कम हाथ की दूरी से लाया हुआ आहार ग्रहण करना अनाचार नहीं। पिण्डनियुक्ति के समान निशीथभाष्य में भी इसे देशाभिहत और देशदेशाभिहत माना गया है। जहां से दाता को देने की प्रवृत्ति देखी जा सके, वहां से लाये हुए आहार को उपयोगपूर्वक लेना अनाचार नहीं। इसी प्रकार कहीं भोज आदि का आयोजन हो और भिक्षु वहां पहुंच कर यह दो, यह दो-इस प्रकार अवभाषण करता है-यह संखड़ी-प्रलोकना कहलाती है। इस प्रकार संखडी प्रलोकना करना, किसी के निषेध किए जाने पर भी उस घर में भिक्षार्थ जाना, यात्रीगृह, बगीचे, आश्रम आदि में आए हुए स्त्री-पुरुषों से अशन-पान आदि का अवभाषण करना आदि प्रतिषिद्ध पदों का भी प्रस्तुत उद्देशक में प्रायश्चित्त-कथन हुआ है। भाष्यकार ने संखड़ी के प्रसंग में यावन्तिका, प्रगणिता आदि अनाचीर्ण-आचीर्ण संखड़ियों का वर्णन करते हुए उनमें होने वाले दोष, उनमें प्रवेश करने की विधि आदि का भी निर्देश दिया है। प्रस्तुत उद्देशक का एक महत्त्वपूर्ण विषय है-शरीर का प्रतिकर्म । 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'-इस तथ्य से अभिज्ञ भिक्षु शरीर की सर्वथा उपेक्षा नहीं कर सकता और न वह व्रण, गण्ड, अर्श आदि के प्रति लापरवाही कर सकता है। निष्प्रतिकर्मता उसका आदर्श हो सकता है, किन्तु समाधि एवं सूत्रार्थ की अव्यवच्छित्ति के लिए उसे यथापेक्षा, यथावसर कुछ परिकर्म करना पड़ता है। जो भिक्षु निष्कारण पैरों, शरीर, ओष्ठ, आंख आदि का आमार्जन-प्रमार्जन, संबाधनपरिमर्दन, अभ्यंगन-म्रक्षण, उत्क्षालन-प्रधावन आदि परिकर्म करता है, विविध अवयवों की रोमराजि को काटता अथवा व्यवस्थित करता है, आंख, नाक, कान आदि के मैल का निष्कासन एवं विशोधन करता है, वह बाकुशिकत्व का आचरण करता है अतः उसको लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य कार्य माना गया है। प्रस्तुत संदर्भ में भाष्यकार ने एतद्विषयक १. दसवे. हा. वृ. प. ११६ ३. पि.नि. १५९-आइण्णे तिन्नि गिहा ते चिय उवओगपुव्वागा। २. निभा. गा. १४८८
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy