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टिप्पण
१. सूत्र १-७
उक्त दोनों सूत्रों में विसंगति प्रतीत हो रही है। इन दोनों में संगति पादप्रोञ्छन भिक्षु की औपग्रहिक उपधि है। इसे पैर पौंछने के। का सूत्र अनुसंधान का विषय है। काम में लिया जाता था। पट्टक और दो निषद्याओं से रहित रजोहरण शब्द विमर्श पादप्रोञ्छन कहलाता था।'
•धारण-अपरिभुक्त रूप में रखना।' रजोहरण औधिक उपधि है। भिक्षु को किसी वस्तु को लेना, • वितरण-ग्रहण की अनुमति देना। रखना हो, कायोत्सर्ग आदि के लिए खड़ा होना, बैठना अथवा • दान-प्रदान करना। सोना हो, ये सारे कार्य प्रमार्जनपूर्वक करने होते हैं। प्रमार्जन का • परिभोग-काम में लेना। साधन रजोहरण है तथा वह भिक्षु का लिंग (चिह्न) भी है। वर्तमान २. सूत्र ८ में जिसे ओघा (रजोहरण) कहा जाता है, वह पादप्रोञ्छन से भिन्न रजोहरण के समान पादप्रोञ्छन भी और्णिक, औष्ट्रिक आदि उपकरण है।
पांच प्रकार का होता है। गीले पादप्रोञ्छन से प्रमार्जन आदि कार्य प्रस्तुत आलापक में दारुदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन के निर्माण, करने पर वह कुथित हो सकता है, उसकी दशिका में गोलक बंध ग्रहण, धारण, वितरण, दान एवं परिभोग करने वाले भिक्षु मात्र के सकते हैं, वर्षा में अप्काय की विराधना संभव है। अतः सामान्यतः लिए प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है, जबकि कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में निर्ग्रन्थ भिक्षु न उसे गीला करे और न सुखाए। के लिए दारुदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन रखना विहित माना गया है। कदाचित् वर्षा आदि के कारण गीला हो जाए तो उसे निशीथभाष्यकार के अनुसार दारुदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन के निषेध का यतनापूर्वक आधी धूप में सुखाए तथा बीच-बीच में मसल कर हेतु भार की अधिकता एवं उससे होने वाली आत्म-संयमविराधना पुनः आतप में रखें ताकि उसकी दशिका सूख कर कड़ी न हो आदि दोष हैं। इससे प्रतीत होता है कि भिक्षु यदि अपेक्षाविशेष से जाए। काष्ठदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन रखे या बनाए तो उसे भिक्षाचर्या आदि शब्द विमर्श में साथ लेकर न जाए। कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में निर्ग्रन्थी के लिए •विसुयाव-यह देशी धातु है इसका अर्थ है सुखाना। काष्ठदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन का निषेध प्रज्ञप्त है। बृहत्कल्पभाष्य में ३. सूत्र ९ अपवादरूप में निर्ग्रन्थी के लिए चपटे दारुदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन का प्रथम उद्देशक में सचित्त वस्तु-पुष्प आदि की गन्ध को सूंघने विधान किया गया है। स्पष्टतः उनका यह विधान ब्रह्मचर्य-गुप्ति का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत सूत्र में अचित्त वस्तु-चंदन, माला, की दृष्टि से है।
विलेपन आदि की गन्ध सूंघने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। गन्ध सूंघने प्रस्तुत आगम में निर्ग्रन्थ के लिए दारुदण्डयुक्त पादप्रोञ्छन । के निषेध के कारण सूत्र १।१० के टिप्पण से ज्ञातव्य हैं। को धारण आदि करना प्रायश्चित्ताह कार्य माना गया है जबकि ४.सूत्र १० कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) (५।३५) में निर्ग्रन्थ के लिए दारुदण्डयुक्त यदि वसति में वर्षा का पानी एकत्र हो जाने से आवागमन में पादप्रोञ्छन को धारण करना विहित माना गया है। सामान्य तौर में संयमविराधना एवं आत्मविराधना की संभावना हो और अन्य वसति १. निभा. भा. २ चू. पृ. ६८-पादे पुंछति जेण तं पादपुंछणं, पट्टयदुनि- ४. निभा. २ चू. पृ. ७०-गहियं संतं अपरिभोगेन धारयति । सिज्जवज्जियं रओहरणमित्यर्थः ।
५. वही-'वियरति'-ग्रहणानुज्ञां ददातीत्यर्थः । २. वही. गा. ८२८
६. वही, पृ.७१-विभयणं दानमित्यर्थः। इहरवि ताव गरुयं, किं पुण भत्तोग्गहे अधव पाणे।
७. वही-परिभोगो तेन कार्यकरणमित्यर्थः । भारे हत्थुवघातो पडमाणे संजमायाए॥
८. वही, गा. ८४५-विसुआवणसुक्कणं। ३. बृभा. गा. ५९७५
ते चेव दारुदंडे पाउंछणगम्मि जे सनालम्मि। दुण्ह वि कारणग्रहणे, चप्पडए दंडए कुज्जा।