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निसीहज्झयणं
उद्देशक १: टिप्पण
है, किन्तु केवल सौन्दर्यवृद्धि के लिए या निष्कारण पैबन्द न लगाए। ज्ञातव्य है कि मुनि पैबन्द उसी वस्त्र का लगाए अर्थात् विजातीय वस्त्र का पैबन्द न लगाए तथा तीन से अधिक एवं दुष्प्रतिलेख्य पैबन्द न लगाए। शब्द विमर्श
१.पडियाणियं यह देशी शब्द है, इसका अर्थ है-पैबन्द।। १५. सूत्र ४९
___ यदि प्रमाणोपेत वस्त्र न मिले तो एकाधिक वस्त्र-खण्डों की सिलाई करना अथवा फटे हुए धारणीय वस्त्र की सिलाई करना विधिसम्मत है। प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र की अविधि से सिलाई करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इस प्रसंग में भाष्यकार ने गग्गरग, दंडी, जालिका, एकसरा आदि तत्कालीन प्रसिद्ध अनेक प्रकार की सिलाई विधियों का उल्लेख किया है। इनमें घाघरे की तरह सलवट डालकर, जाली या भरती आदि से की गई सिलाई को दुष्प्रतिलेख्य होने के कारण अविधि सिलाई माना गया है। गोमूत्रिका संस्थान से की गई सिलाई सुप्रतिलेख्य एवं सुकर होती है, अतः उसे विधिसम्मत माना गया है। १६. सूत्र ५३
भिक्षु के लिए पांच प्रकार के वस्त्र एषणीय माने गए हैं-जांगिक, भांगिक, शाणक, पोतक (सूती) और क्षौमिक। इनमें से प्रत्येक वस्त्र के लिए एक स्वजातीय के अतिरिक्त शेष चार प्रकार के वस्त्र के साथ जोड़ना अतज्जातीय वस्त्र से ग्रथन (जोड़ने) के अंतर्गत है। अनावश्यक ग्रथन अनुपयोगी है। प्रस्तुत सूत्र में उसका प्रायश्चित्त । प्रज्ञप्त है। १७. सूत्र ५४
प्रस्तुत सूत्र में 'अतिरेगगहित' शब्द के दो संस्कृत रूप संभव हैं-१. अतिरेकग्रथित और २. अतिरेकगृहीत । अतिरेकग्रथित वस्त्र का अर्थ है-चार, पांच आदि स्थानों से ग्रथित वस्त्र । भाष्यकार के अनुसार अपलक्षण एवं अतिरेक ग्रथित वस्त्र ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपघातक है अतः ग्राह्य नहीं।
भिक्षु के लिए वस्त्र का जो परिमाण एवं गणना निर्दिष्ट है, उससे अधिक ग्रहण करना अतिरेक ग्रहण के अन्तर्गत आता है।
किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में अतिरेकग्रथित अर्थ ही अधिक संगत है। क्योंकि अतिरेकगृहीत उपधि का प्रायश्चित्त है चतुर्लघु ।' १८. सूत्र ५५
गृहधूम का अर्थ है-रसोई की दीवार या छत पर जमा हुआ चूल्हे का धूआं । प्राचीन काल में दाद, खुजली आदि रोगों से संबद्ध औषधियों में गृहधूम का प्रयोग होता था। चरक से भी इस मत की पुष्टि होती हैं। भिक्षु को औषधि के लिए यदि पूर्वपरिशाटित गृहधूम मिल जाए तो वह उसका ग्रहण करे। पूर्वपरिशाटित धूम के अभाव में, वह गृहस्थ से अनुज्ञा लेकर स्वयं रसोईघर में जाकर धूआं उतार ले। गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक के द्वारा धूआं उतरवाने से उनके गिरने की संभावना रहती हैं, धूएं के कणों के गिरने पर वे पश्चात्कर्म कर सकते है।
भाष्य के अनुसार गृहधूम सूत्र से तज्जातीय अन्य रोगों एवं तत्संबंधी चिकित्सा की सूचना प्राप्त होती है अर्थात् अन्यान्य रोगों में भी यदि गृहस्थ आदि की सेवा ली जाए तो यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
सूत्र ५६ १९. पूतिकर्म (पूइकम्म)
यह उद्गम का तीसरा दोष है। जो आहार आदि श्रमण के लिए बनाया जाए, वह आधाकर्म कहलाता है। जैसे अशुचि गंध के परमाणु वातावरण को विषाक्त बना देते हैं, उसी प्रकार आधाकर्म दोष से युक्त पदार्थों से संस्कृत होने तथा आधाकर्म दोष से लिप्त चम्मच आदि उपकरणों को प्रयुक्त करने से आहार आदि पूतिकर्म दोषयुक्त हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र के भाष्य एवं चूर्णि में पूतिदोष युक्त आहार, उपधि एवं वसति की विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती
२०. अनुद्घातिक (अणुग्घाइयं)
जिस प्रायश्चित्त का निरन्तर वहन किया जाए, वह अनुद्घातिक अथवा गुरु प्रायश्चित्त कहलाता है। काल की दृष्टि से ग्रीष्म ऋतु एवं तप की दृष्टि से अष्टमभक्त (तेला) गुरु प्रायश्चित्त है। काल
और तप से गुरु प्रायश्चित्त भी यदि सान्तर (अन्तराल सहित) दिया जाए (वहन करवाया जाए) तो लघु हो जाता है, इसी प्रकार काल
१. निभा. भा. २, चू.पृ. ५६-पडियाणिया थिग्गलयं छंदंतो य एगहूँ। २. (क) ठाणं ५।९०
(ख) कप्पो २०२८ निभा. गा. ७९४अवलक्खणो उ उवधी, उवहणती णाणदंसणचरिते।
तम्हा ण धरेयव्वो ..............................। ४. निसीह. १६/४० ५. द्रष्टव्य-दसवे. ३१९ का टिप्पण।
६. निभा. गा. ७९८ ७. वही, गा. ८०१,८०२ . ८. (क) वही, गा. ८०४-८११
(ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवे. ५११५५ का टिप्पण तथा पि. नि., भू. पृ.६७-७०। निभा. भा. ३ चू. पृ. ६२-अणुग्घातियं णाम जे णिरंतरं वहति गुरुमित्यर्थः।