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टिप्पण सूत्र १
१. भिक्षु (भिक्खू)
प्रस्तुत सूत्र के मूल पाठ में साध्वी का उल्लेख नहीं है। भाष्यकार के अनुसार साध्वी के लिए भी यह सूत्र विहित है। भाष्यकार का यह उल्लेख प्रासंगिक है। २. हस्तकर्म (हत्थकम्म) ____ हस्तकर्म का अर्थ है-अप्राकृतिक मैथुन, हस्तमैथुन । स्वयं के हाथ, अंगुली, शलाका आदि के द्वारा अंगादान का संचालन आदि कर स्पर्श सुख की अनुभूति करना, वीर्यपात करना हस्तकर्म कहलाता
क्रियाएं कामराग को उदीप्त करती हैं। वे सुप्तसिंह को जगाने, शान्त सर्प को उत्तेजित करने आदि के समान आत्मघाती प्रवृत्तियां हैं, चारित्र में अतिचार के धब्बे लगाने वाली हैं। अतः भिक्षु के लिए निषिद्ध हैं।
भाष्य एवं चूर्णि ने इनके स्पष्टीकरण के लिए सात दृष्टान्त दिए गए हैं
१.संचालन-सुप्तसिंह को जगाना। २. संबाधन-सोए हुए आशीविष सर्प को जगाना। ३. अभ्यंगन-अग्नि को घी से सींचना।' ४. उद्वर्तन-भाले की धार को तीखा करना। ५. उत्क्षालन-बुभुक्षित सिंह की आंख की चिकित्सा।' ६.निश्छलन-सुप्त अजगर का मुंह खोलना।"
७. घ्राण-अम्बष्ठी व्याधि (आमसेवन से प्रकुपित होने वाला रोग) से व्याधित व्यक्ति का आम सूंघना। ५ शब्द विमर्श
१. अंगादान-जननेन्द्रिय ।१२
२. किलिंच-बांस की खपाची।" . ३. शलाका-बेंत आदि का शलाका।"
यह प्रबल वेदोदय का कुत्सित परिणाम है। यह ब्रह्मचर्य के लिए घातक प्रवृत्ति है। दसाओ में इसे शबल दोष माना गया है। अतः भिक्षु के लिए इसका प्रतिषेध किया गया है। ३. अनुमोदन करता है (सातिज्जति)
भाष्य एवं चूर्णि में 'सातिज्जति' इस क्रियापद के दो अर्थ किए गए हैं -१. कराना (किसी दूसरे को किसी क्रियाविशेष में प्रेरित करना) और २. अनुमोदन करना (स्वयं प्रेरित हुए व्यक्ति को न रोकना)। ४. सूत्र २-९ _ अंगादान (जननेन्द्रिय) का संचालन, संबाधन, अभ्यंगन आदि १. निभा. ५९०-एसेव कमो णियमा, णिग्गंथी पि होति कायव्यो। २. दसाओ १/३-हत्थकम्मं करेमाणे सबले। ३. निभा. ५८८-अणुमोदण कारावण, दुविधा साइज्जणा समासेणं। ४. वही, गा. ५८९
कारावणमभियोगो, परस्स इच्छस्स वा अणिच्छस्स।
काउं सयं परिणते, अणिवारण अणुमती होइ॥ ५. वही, भा. २, चू. पृ. २८-सीहो सुत्तो संचालितो जहा जीवियंतकरो
भवति । एवं अंगादाणं संचालियं मोहब्भवं जणयति । ततो
चरित्तविराहणा। इमा आयविराहणा-सुक्कखएण मरेज्ज। ६. वही-जो आसीविसं सुहसुत्तं संबोहेति सो विबुद्धो तस्स जीवियंतकरो
भवति । एवं अंगादाणं पि परिमहमाणस्स मोहब्भवो, ततो
चारित्तजीवियविणासो भवति। ७. वही-इयरहा वि ताव अग्गी जलति किं पुण घतादिणा सिच्चमाणी।
एवं अंगादाणे वि मक्खिज्जमाणे सुट्ठत्तरं मोहब्भवो भवति। वही-'भल्ली' शस्त्रविशेषः, सा संभावेण तिण्हा, किमंग पुण णिसिया। एवं अंगादाणसमुत्थो सभावेण मोहो दिप्पति, किमंग पुण
उव्यट्टिते। ९. वही-एगो वग्यो, सो अच्छिरोगेण गहिओ, संबद्धा य अच्छी, तस्स
य एगेण वेज्जेण वडियाए अक्खीणि अंजेऊण पउणीकताणि, तेण सो चेव य खद्धो। एवं अंगादाणं पि सो (सुट्ठ) इतर चारित्रविनाशाय
भवतीत्यर्थः। १०. वही-जहा अयगरस्स सुहप्पसुत्तस्स मुहं वियडेति, सो तस्स अप्पवहाय
भवति । एवं अंगादाणं पि णिच्छल्लियं चरित्रविनाशाय भवति। ११. वही-एगो राया तस्स वेज्जपडिसिद्धे अंबए जिंघमाणस्स अंबट्ठी वाही
उद्धाइतो, गंधप्रियेण वा कुमारेणं गंधमग्घायमाणेण अप्पा जीवियाओ भंसिओ। एवं अंगादाणं जिंघमाणो संजमजीवियाओ चुओ, अणाइयं
च संसारं भमिस्सति त्ति। १२. वही, पृ. २६-अंगं सरीरं, सिरमादीणि वा अंगाणि, तेर्सि
आदाणं अंगादाणं प्रभवो प्रसूतिरित्यर्थः। तं पुणं अंगादाणं मे,
भण्णति। १३. वही-कलिंचो वंसकप्परी। १४. वही-वेत्रमादि सलागा।