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उद्देशक २० : सूत्र १६
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निसीहज्झयणं
आरोपित कर देना चाहिए, जो उसने इस प्रस्थापना में प्रस्थापित होने पर निर्विशमान अवस्था (प्रायश्चित्त-वहनकाल) में प्रतिसेवन किया है।
१६. जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं यो भिक्षुः बहुशः अपि चातुर्मासिकं वा १६. जो भिक्षु बहुत बार चातुर्मासिक, बहुत
वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुशः अपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बार सातिरेक चातुर्मासिक, बहुत बार बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि __ बहुशः अपि पाञ्चमासिकं वा बहुशः पाञ्चमासिक और बहुत बार सातिरेक साइरेगपंचमासियं वा एएसिं अपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां पाञ्चमासिक-इन परिहारस्थानों में से परिहारद्वाणाणं अण्णयरं परिहारद्वाणं परिहारस्थानानाम् अन्यतरं परिहारस्थानं किसी परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर पडिसेवित्ता आलोएज्जा, प्रतिसेव्य आलोचयेत्, अपरिकुञ्चितम् आलोचना करता है, निश्छल भाव से अपलिउंचियं आलोएमाणे ठवणिज्जं ___ आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा आलोचना करने पर स्थापनीय (परिहारतप ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं। करणीयं वैयावृत्यम्। स्थापिते अपि की समग्र सामाचारी) की स्थापना ठविए विपडिसेवित्ता, से विकसिणे प्रतिसेव्य, तदपि कृत्स्नं तत्रैव (प्ररूपणा) करके (उसका) वैयावृत्य करना तत्थेव आरुहेयव्वे सिया।
आरोपयितव्यं स्यात्। मारहवासिया।
चाहिए। प्रायश्चित्त में स्थापित करने के पुव्विं पडिसेवियं पुव्विं आलोइयं, __ पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचितम्, पूर्व बाद भी प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण पुव्विं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं। प्रतिसेवितं पश्चाद् आलोचितम् । पश्चात् प्रायश्चित्त उसी (पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त) में पच्छा पडिसेवियं पुव्विं आलोइयं, प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचितम्, पश्चात् आरोपित कर देना चाहिए। पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं। प्रतिसेवितं पश्चाद् आलोचितम्।
१. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की अपलिउंचियं, अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम्, पूर्वानुपूर्वी से आलोचना। अपलिउंचिए पलिउंचियं। अपरिकुञ्चिते परिकुञ्चितम्। २. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की पलिउंचिए अपलिउंचियं, पलिउंचिए परिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम्, परिकुञ्चिते पश्चानुपूर्वी से आलोचना। पलिउंचियं। परिकुञ्चितम्। .
३. पश्चानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की अपलिउंचिए अपलिउंचियं अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् पूर्वानुपूर्वी से आलोचना। आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य ४. पश्चानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्ठविए यत् एतस्यां प्रस्थापनायां प्रस्थापितः पश्चानुपूर्वी से आलोचना। णिव्विसमाणे पडिसेवेइ, से वि निर्विशमानः प्रतिसेवते, तदपि कृत्स्नं • निश्छल भाव से आलोचना का संकल्प कसिणे तत्थेव आरुहेयव्वे सिया॥ तत्रैव आरोपयितव्यं स्यात् ।
कर निश्छल भाव से आलोचना। • निश्छल भाव से आलोचना का संकल्प कर छलपूर्वक आलोचना। • छलपूर्वक आलोचना का संकल्प कर निश्छल भाव से आलोचना। • छलपूर्वक आलोचना का संकल्प कर छलपूर्वक आलोचना। निश्छल संकल्प की स्थिति में निश्छल भाव से आलोचना करने वाले के इस सारे स्वकृत को एकत्र कर उस सम्पूर्ण प्रायश्चित्त को भी उसी प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए, जो उसने इस