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टिप्पण
१. सूत्र १
के बयालीस दोषों में जो दोष नौका के विषय में संगत हों, उन सब प्रस्तुत सूत्र में नौका पर अनर्थ (निष्प्रयोजन) आरोहण करने । के वर्जन की सूचना इन सूत्रों से होती है-ऐसा ज्ञातव्य है। का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। भाष्यकार ने अनर्थ पद की व्याख्या ३.सूत्र ६-९ तीन प्रकार से की है
प्रस्तुत सूत्र चतुष्टयी में भिक्षु के लिए नौका सम्बन्धी चार १. देखते हैं, अन्दर से नाव कैसी लगती है-इत्यादि चक्षुदर्शन प्रतिषिद्ध कार्यों का प्रायश्चित्त बतलाया गया हैके संकल्प से।
१. अवकर्षण-थल में स्थित नौका को जल में करना। २. नौका में आरूढ़ होकर कैसे गमन किया जाता है-इस २. उत्कर्षण-जल में स्थित नौका को थल में करना। गमनकुतूहल से।
३. उत्सेचन-जल से पूर्ण नौका का उत्सेचन-खाली करना। ३. ज्ञान, दर्शन आदि पुष्ट आलम्बनों के अभाव में।'
४. उत्प्लावन-कीचड़ में फंसी नौका को उससे बाहर यदि मासकल्प अथवा वर्षावास के पूर्ण होने के बाद ऐसा निकालना। कोई क्षेत्र न बचा हो, जहां मासकल्प बिताया जा सके अथवा कहीं उपर्युक्त चारों ही कार्यों में वे ही दोष संभव हैं, जो महानदी भी स्थल-पथ न हो अथवा स्थल-पथ में स्तेन या श्वापद का भय, उतरने के प्रसंग में बताए गए हैं। विशेष आपवादिक कारणों में यदि भिक्षा अथवा वसति का अभाव हो, कोई अति त्वरित कार्य अथवा कुम्भ, दृति, नौका आदि का प्रयोग करना आवश्यक हो तो भिक्षु आगाढ़ ग्लान्य आदि प्रयोजन हों तो अपवादरूप में नौका द्वारा अद्रष्टा अश्रोता बनकर नमस्कारपरायण होकर बैठे-यही काम्य है। जलसंतरण विधिसम्मत माना गया है।
आयारचूला में इन कार्यों को न करते हए भिक्षु को किस प्रकार नौका २. सूत्र २-५
में स्थित होना चाहिए'-उस विधि का निर्देश दिया गया हैं। ___सामान्यतः भिक्षु पादचारी होते हैं, स्थलमार्ग से चलते हैं। दो ४. सूत्र १०-१२ योजन का चक्कर लेने पर भी यदि स्थलमार्ग न हो तो भिक्षु प्रस्तुत सूत्रद्वयी में प्रतिनौका अथवा प्रतिनाविक करके नौका अर्धजंघा (संघट्ट) प्रमाण जलमार्ग से जा सकता है। इसी प्रकार डेढ़ पर आरोहण करने तथा ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी, योजनवेलागामिनी योजन चक्कर लेने पर भी अर्धजंघा प्रमाण जलमार्ग न हो, एक और अर्धयोजनवेलागामिनी नौका पर आरोहण का प्रायश्चित्त बतलाया योजन चक्कर लेने पर नाभिप्रमाण और आधायोजन चक्कर लेने पर गया है। आयारचूला में भी उपर्युक्त नौकाओं में आरोहण का निषेध नाभि से अधिक थाह वाला जलमार्ग न हो तो अथाह जल (नासिका किया गया है। डूबे उतने अथवा उससे अधिक जल) में कुम्भ, दृति अथवा नाव से ज्ञातव्य है कि भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने इन सूत्रों के विषय में गन्तव्य की ओर जाना विधिसम्मत माना गया है।
कोई मन्तव्य, निषेध का हेतु अथवा अपवाद का कोई कारण नहीं उपर्युक्त परिस्थिति में जब नौका का प्रयोग करना अनिवार्य बताया है। अग्रिम सूत्रों पर निबद्ध भाष्य की चूर्णि में ऊर्ध्व, अधः हो, तब भी भिक्षु क्रीत, प्रामित्य, परिवर्त्य आदि दोषों से रहित और तिर्यक् शब्द का अर्थ इस प्रकार मिलता हैनौका पर आरोहण करे। आयारचूला में भिक्षु को क्रीत, प्रामित्य, ऊर्ध्व-नदी अथवा समुद्री ज्वार के पानी के प्रतिकूल । परिवर्त्य आदि दोषों से युक्त नौका पर आरोहण कर ग्रामानुग्राम अधः-नदी अथवा समुद्री ज्वार के पानी के अनुकूल। विहार करने का निषेध किया गया है। भाष्यकार के अनुसार पिण्डैषणा तिर्यक्-पानी के स्रोत के न अनुकूल और न प्रतिकूल। १. निभा. गा. ५९९९
६. निभा. भा. ३ चू.पृ. ३७४ २. वही, गा. ६०००
७. आचू. ३/१४-१६ ३. वही, गा. ४२४६,४२४७
८. वही,३।१४ ४. आचू.३/१४-१६
९. निभा. भा. ४, चू.पू. २०९ ५. निभा. गा. ६००४