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________________ उद्देशक १८ : सूत्र ३७-४३ पडिग्गाहेति, सातिज्जति ।। पडिग्गार्हतं वा ३७. जे भिक्खू अइरेगं वत्थं गणि उद्दिसिय गणि समुद्दिसिय तं गणि अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरति, वियरंतं वा सातिज्जति ॥ ३८. जे भिक्खू अइरेगं वत्थं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरस्स वा थेरियाए वा - अहत्थच्छिण्णस्स अपाय अकण्णच्छिण्णस्स च्छिण्णस्स अणासच्छिण्णस्स अणोट्ठच्छिण्णस्स सक्कस्स- देति, सातिज्जति ॥ देंतं वा ३९. जे भिक्खू अइरेगं वत्थं खुड्डगस्स वा खुड्डिया वा थेरस्स वा थेरियाए वा - हत्थच्छिण्णस्स पायच्छिण्णस्स कण्णच्छिण्णस्स णासच्छिण्णस्स ओट्ठच्छिण्णस्स असक्कस्स-न देति, न देंतं वा सातिज्जति ।। ४०. जे भिक्खू वत्थं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं धरेति, धरेंतं वा सातिज्जति ॥ ४१. जे भिक्खू वत्थं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं न धरेति, न धरेंतं वा सातिज्जति ॥ ४२. जे भिक्खू वण्णमंतं वत्थं विवण्णं करेति, करेंतं वा सातिज्जति ।। ४३. जे भिक्खू विवण्णं वत्थं वण्णमंत ४१४ प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः अतिरेकं वस्त्रं गणिनम् उद्दिश्य गणिनं समुद्दिश्य तं गणिनम् अनापृच्छ्य अनामन्त्र्य अन्योन्यस्मै वितरन्तं वा स्वदते । वितरति, यो भिक्षुः अतिरेकं वस्त्रं क्षुद्रकाय वा क्षुद्रिकायै वा स्थविराय वा स्थविरायै वा - अहस्तच्छिन्नाय अपादच्छिन्नाय अकर्णच्छिन्नाय अनासाच्छिन्नाय अनोष्ठच्छिन्नाय शक्ताय ददाति ददतं वा स्वदते । यो भिक्षुः अतिरेकं वस्त्रं क्षुद्रकाय वा क्षुद्रिकायै वा स्थविराय वा स्थविरायै वा - हस्तच्छिन्नाय पादच्छिन्नाय कर्णच्छिन्नाय नासाच्छिन्नाय ओष्ठच्छिन्नाय अशक्ताय न ददाति, न ददतं वा स्वदते । यो भिक्षुः वस्त्रम् अनलम् अस्थिरम् अध्रुवम् अधारणीयं धरति, धरन्तं वा स्वदते । यो भिक्षु वस्त्रम् अलम् स्थिरं ध्रुवं धारणीयं न धरति, न धरन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः वर्णवत् वस्त्रं विवर्णं करोति, कुर्वतं वा स्वते । यो भिक्षुः विवर्णं वस्त्रं वर्णवत् करोति, निसीहज्झयणं को ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ३७. जो भिक्षु गणि को उद्दिष्ट कर, गणि को समुद्दिष्ट कर, उस गणि को पूछे बिना, आमंत्रित किए बिना अतिरेक वस्त्र को परस्पर एक दूसरे को देता है अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है। ३८. क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका, स्थविर अथवा स्थविरा - जो अहस्तछिन्न नहीं है, अपादछिन्न है, अकर्णछिन्न है, अनासिकाछिन्न है, अनोष्ठछिन्न है, सशक्त है - उसे जो भिक्षु अतिरिक्त वस्त्र देता है अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है। ३९. क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका, स्थविर अथवा स्थविरा -जो हस्तछिन्न है, अपादछिन्न है, कर्णछिन्न है, नासिकाछिन्न है, ओष्ठछिन्न है, अशक्त है-उसे जो भिक्षु अतिरिक्त वस्त्र नहीं देता अथवा नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है । ४०. जो भिक्षु अनल (अपर्याप्त), अस्थिर, अध्रुव, अधारणीय ( रखने के अयोग्य ) वस्त्र को धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। ४१. जो भिक्षु पर्याप्त, स्थिर, ध्रुव, धारणीय वस्त्र को धारण नहीं करता अथवा धारण न करने वाले का अनुमोदन करता है। ४२. जो भिक्षु वर्णवान वस्त्र को विवर्ण बनाता है अथवा बनाने वाले का अनुमोदन करता है । ४३. जो भिक्षु विवर्ण वस्त्र को वर्णवान बनाता
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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