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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक दो विभागों (पदों) में विभक्त है१. नौकाविहार-पद
२. वस्त्र-पद नौकाविहार पद की तुलना आयारचूला के तृतीय अध्ययन–'इरिया' के 'णावाविहार पदं' से की जा सकती है। वहां कहा गया है-ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए कदाचित् भिक्षु अथवा भिक्षुणी ऐसे स्थान पर पहुंच जाए, जहां नौसंतार्य जल हो। उस समय यदि कोई असंयत भिक्षु की प्रतिज्ञा से नौका खरीदे, नौका उधार ले, अपनी नौका के बदले दूसरे की नौका ले, थल से जल में नौका को अवगाहित करे, नौका को जल से थल में खींचे, नौका से पानी का उत्सिंचन करे, कीचड़ में फंसी नौका को निकाले, उस पर आरोहण न करे तथा इसी प्रकार की अन्य ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी, तिर्यक्गामिनी नौका पर और एक योजन अथवा आधा योजन से अधिक प्रवाह में चलने वाली नौका में अल्पतर अथवा भूयस्तर गमन के लिए आरोहण न करे।' प्रस्तुत उद्देशक के नौ सूत्रों में इन सबके अतिक्रमण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
प्रस्तुत उद्देशक में आच्छेद्य, अनिसृष्ट एवं अभिहत नौका पर आरोहण तथा प्रतिनाविक (आधी दूर के लिए निर्णीत नाविक) करके नौका पर आरोहण का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। कोई नौकागत गृहस्थ यदि नौकागत भिक्षु से किसी प्रकार से नौकासंचालन में सहयोग के लिए निवेदन करे, उसके छिद्र से पानी आ रहा हो तो उसे छिद्र बन्द करने अथवा उस पानी को निकालने के लिए कहे तो भिक्षु के लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय-इसका सविस्तार निर्देश आयारचूला के ‘णावाविहार पदं' में उपलब्ध होता है। प्रस्तुत आगम में उनमें से कतिपय निषिद्ध पदों का प्रायश्चित्त बतलाया गया है।
आयारचूला के अनुसार नौका में बैठते समय भिक्षु अपने सारे उपकरणों की प्रतिलेखना कर उन्हें एक साथ बांध ले तथा मस्तक पर्यन्त सारे शरीर का प्रमार्जन कर साकार भक्त-प्रत्याख्यान करे। उसके पश्चात् एक पैर जल में, एक पैर स्थल (आकाश) में रखते हुए संयतभाव से नौका में आरोहण करे। प्रस्तुत उद्देशक में दायक और ग्राहक के सोलह सांयोगिक विकल्पों का ग्रहण हुआ है, जिनमें अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य को ग्रहण करने से प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यहां प्रश्न होता है कि जब नौका में आरोहण करते समय साकार भक्तप्रत्याख्यान की विधि है, तब नौगत भिक्षु स्थलगत, जलगत अथवा पंकगत दायक से अशन, पान आदि ग्रहण करे तो वह प्रायश्चित्ताह है, इस विधि का क्या अभिप्राय? तथा आयारचूला में उपर्युक्त निर्दिष्ट सोलह भंगों का निषेध नहीं किया गया, क्यों? प्रस्तुत संदर्भ में यह भी प्रश्न होता है कि विधिसूत्र (आयारचूला) में प्रज्ञप्त सभी निषिद्ध पदों का प्रस्तुत आगम में प्रायश्चित्तकथन नहीं किया गया, ऐसा क्यों?-प्रस्तुत संदर्भ में व्याख्याकारों ने कोई जिज्ञासा-समाधान नहीं किया। अतः यह विषय अन्वेषण की अपेक्षा रखता है।
प्रस्तुत उद्देशक का दूसरा मुख्य प्रतिपाद्य है-वस्त्र। आयारचूला में पाएसणा के समान वत्थेसणा पर भी सम्पूर्ण अध्ययन उपलब्ध है। जिस प्रकार विभिन्न दृष्टिकोणों से पाएसणा में पात्र विषयक विधि-निषेधों पर विचार किया गया है, कुछ अतिरिक्त विचारणीय बिन्दुओं को छोड़कर प्रायः उन सभी दृष्टियों से वत्थेसणा में वस्त्र सम्बन्धी विधि-निषेधों पर विचार किया गया है। यही तथ्य प्रस्तुत आगम पर भी समान रूप से लागू होता है। ज्ञातव्य है कि 'पडिग्गह पदं' (१४/१-४१) में पात्र सम्बन्धी जिनजिन अतिक्रमणों का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत 'वत्थपदं' में वस्त्र-सम्बन्धी उन्हीं सारे अतिक्रमणों का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
१. आचू. ३/१४ २. निसीह. १८/२-४, ६-९, ११, १२
३. आचू. ३/१७-२२ ४. वही, ३/१५