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आमुख
प्रस्तुत उद्देश के मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं-ब्रह्मचर्य की विराधना का प्रायश्चित्त, उपकरण-परिष्कार तथा प्रातिहारिक उपकरणों के विषय में प्राप्त विविध निषेधों का प्रायश्चित्त, वस्त्र एवं पात्र विषयक निषेधों का प्रायश्चित्त, गृहधूम उतरवाने एवं पूतिकर्म-सेवन का प्रायश्चित्त आदि।
चेतना के ऊर्ध्वारोहण में ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। काम-राग का उदय होने पर ब्रह्मचर्य का पालन अत्यन्त दुष्कर हो जाता है। कामवृत्ति का उत्तेजन कर्मोदय, कामोद्दीपक आहार तथा शरीर में धातुओं के वैषम्य के कारण भी हो सकता है और मोहोद्दीपक शब्दों को सुनने, उस प्रकार के रूप को देखने एवं उस प्रकार के स्थान आदि में रहने पर भी हो सकता है। प्रस्तुत उद्देशक का प्रारम्भ हस्तकर्म एवं अंगादान-पद से हआ है। इस संदर्भ में भाष्य एवं चूर्णि में एतद्विषयक अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण हुआ है। साधु विविध परिस्थितियों में किनकिन आलम्बनों का उपयोग कर विस्रोतसिका से स्वयं को बचा सकता है इसका भी स्थान-स्थान पर सुन्दर निर्देश उपलब्ध होता है।
भिक्षु के पास दो प्रकार के उपकरण होते हैं१. औत्सर्गिक
२. औपग्रहिक। औत्सर्गिक उपकरणों का वह परिकर्म-परिष्कार, जो भिक्षु स्वयं कर सके, वह अपेक्षानुसार कर सकता है। औपग्रहिक उपकरणों-सूई, कैंची, नखच्छेदनक एवं कर्णशोधनक के विषय में जो निषिद्ध आचरण गुरुमासिक प्रायश्चित्त के योग्य माने गए हैं, वे क्रमशः ये हैं
१. गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक के द्वारा सूई आदि का परिष्कार करवाना। २. निष्प्रयोजन गृहस्थ के घर से सूई, कैंची आदि का आनयन । ३. अविधि से सूई, कैंची आदि की याचना।
४. एक प्रयोजन से याचित सूई आदि का अन्य प्रयोजन में उपयोग । । ५. एक के लिए याचित सूई, कैंची आदि का परस्पर अनुप्रदान ।
६. सूई आदि का अविधि से प्रत्यर्पण।।
प्रस्तुत उद्देशक में वस्त्र एवं पात्र के विषय में अनेक सूत्र हैं, जिनमें पात्र के थिग्गल, बन्धन तथा वस्त्र के थिग्गल, ग्रथन, सिलाई की अविधि आदि के विषय में प्रायश्चित्त का कथन है। निशीथभाष्य एवं निशीथचूर्णि में प्रस्तुत प्रसंग में लाक्षणिक-अलाक्षणिक उपधि तथा उनसे होने वाले लाभ-हानि, वस्त्र-पात्र के संधान के अनेक प्रकारों आदि का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उपधि-निर्माण और उपधि-परिष्कार में समय एवं शक्ति का व्यय न हो, भिक्षु का अधिकतम समय स्वाध्याय-ध्यान में लगे इसलिए भिक्षु कुत्रिकापण, निह्नव अथवा प्रतिमा-प्रतिनिवृत्त श्रमणोपासक से यथाकृत पात्र का ग्रहण करते थे।
प्रस्तुत उद्देशक के अन्तिम दो सूत्र हैं
१. निभा. गा. ६८८