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प्रस्तुत उद्देशक का प्रतिपाद्य है- सदोष शय्या में अनुप्रविष्ट होने, आर्य देश में विहरण, जुगप्सित कुलों से आहार, उपधि, वसति आदि के ग्रहण एवं स्वाध्याय के उद्देश, समुद्देश आदि करने का, निह्नवों के साथ व्यवहार संबंधी सीमाओं के अतिक्रमण का, परिष्ठापनिका समिति के निषिद्ध पदों के आचरण का, गणसंक्रमण आदि का प्रायश्चित्त ।
आमुख
संयम की निर्मलता एवं निर्विघ्न अनुपालन के लिए आहार की विशुद्धि का जितना महत्त्व है, उपधि एवं वसति की विशुद्धि का भी उतना ही महत्त्व है। प्रस्तुत उद्देशक के प्रारम्भ में शय्या पर विचार किया गया है। आयारचूला ' सागारिक, साग्निक एवं सोदक शय्या में स्थान, शय्या एवं निषद्या का निषेध करते हुए बताया गया है कि इस प्रकार की शय्या प्रज्ञावान मुनि के निष्क्रमण - प्रवेश, वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा एवं धर्मानुयोगचिन्ता के योग्य नहीं होती । कप्पो' (बृहत्कल्पसूत्र) में साग्निक (दीपकयुक्त एवं ज्योतियुक्त) तथा सोदक शय्या का निषेध किया गया है। वहां पहले सामान्यतः सागारिक शय्या का निषेध करके बाद में निर्ग्रन्थ के लिए स्त्रीसागारिक एवं निर्ग्रन्थी के लिए पुरुषसागारिक उपाश्रय का निषेध तथा निर्ग्रन्थ के लिए पुरुषसागारिक एवं निर्ग्रन्थी के लिए स्त्रीसागारिक उपाश्रय में रहना सम्मत माना गया है। प्रस्तुत उद्देशक में निर्विशेष रूप में भिक्षु मात्र के लिए सागारिक, सोदक एवं साग्निक शय्या का प्रायश्चित्त कथन किया गया है।
प्राचीन भारतीय भूगोल के आधार पर आगमों एवं व्याख्यासाहित्य में पूर्वदिशा में मगध, दक्षिण में कौशाम्बी, पश्चिम में धूणा एवं उत्तर में कुणाला- इनका मध्यवर्ती क्षेत्र आर्य क्षेत्र कहलाता था यहां के निवासी आर्य कहलाते थे। इन साढ़े पच्चीस क्षेत्रों में रहने वाले लोग सुसंज्ञाप्य, सुप्रज्ञापनीय, कालप्रतिबोधी (यथासमय उठने वाले) तथा कालपरिभोजी होते थे । अतः मुनि के लिए निर्देश दिया गया कि उचित विधि से निर्वाह योग्य क्षेत्र हो तो मुनि विविध प्रकार के प्रात्यंतिक दस्युओं स्थानों, म्लेच्छ एवं अनार्य देशों में बिहार की प्रतिज्ञा से विहार न करे और न अनेक दिनों में पार करने योग्य अटवी में बिहार करे।" वहां बताया गया है कि म्लेच्छ अनार्य लोग धर्म के विषय में अज्ञ होते हैं। वे भिक्षु के विषय में 'यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह वहां से आया है' इत्यादि भ्रामक बातों का प्रचार करते हुए भिक्षु पर आक्रोश पर सकते है, बांध अथवा पीट सकते हैं। उसके वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रोच्छन को छीन सकते हैं, चुरा सकते हैं अथवा उसका तिरस्कार कर सकते हैं।' भाष्यकार ने मुनि सुव्रतस्वामी के समय हुए पालक एवं स्कन्दक के सम्पूर्ण घटनाक्रम के द्वारा यह बताया है कि अनार्य देश में जाने पर किस प्रकार उपसर्ग सहन करना पड़ सकता है।
प्रस्तुत उद्देशक में जुगुप्सित कुल में भिक्षाग्रहण, वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रोज्छन के ग्रहण, वसतिग्रहण तथा स्वाध्याय के उद्देश, वाचना एवं प्रतिच्छना (ग्रहण करना) के प्रायश्चित्त का निर्देश प्राप्त होता है। निशीथभाष्यकार ने जुगुप्सित कुलों में अशन, वस्त्रादि ग्रहण के निषेध के पीछे अपयश, प्रवचनहानि, विपरिणाम, कुत्सा एवं शंका- इन पांच कारणों का निर्देश दिया है।
जो व्यक्ति जिनशासन को स्वीकार करके भी कलह करके गण से अलग हो जाते हैं, उनके साथ आहार, उपधि, वसति,
१. आचू. २/४९
२. कप्पो २/५-७
३. वही, १/२५
४. वही, १/२६ २९
५. आचू. ३/८, १२
६. वही, ३ / ९
७. निभा. गा. ५७६२