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निसीहज्झयणं
१७. सूत्र ३३-४०
ग्यारहवें उद्देशक में 'दिवा - रात्रि भोजन-पद' नामक आलापक में चतुर्विध आहार - अशन, पान आदि के विषय में चार भंग प्रज्ञप्त हैं। गोमय एवं आलेपनजात के विषय में भी वे ही चार-चार भंग बनते हैं। दिन में गृहीत गोवर अथवा किसी आलेपन - मलहम, लेप आदि को रात में शरीर के किसी व्रण आदि पर लगाने से रात्रिभोजन व्रत में अतिचार लगता है, उसी प्रकार रात में गृहीत गोबर या आलेपन को रात अथवा दिन में एक या अनेक बार लगाने से तथा दिन में ग्रहण किए हुए गोबर आदि को परिवासित रखकर दूसरे दिन उपयोग में लेने से भी रात्रिभोजन विरमणव्रत में अतिचार लगता है। परिवासित गोबर एवं आलेपनजात का उपयोग करने में सन्निधि, संचय आदि से होने वाले दोष भी संभव हैं कप्पो (बृहत्कल्प सूत्र) में आगढ़ कारण के सिवाय परिवासित आलेपन से शरीर पर आलेपनविलेपन का तथा तैल, घृत आदि से शरीर पर म्रक्षण आदि करने का निषेध है । ज्ञातव्य है कि वेदना की उपशान्ति, व्रण- परिपाक, रुधिर, पीव आदि के निर्घातन एवं व्रणसंरोहण के लिए अनेक प्रकार के आलेपन द्रव्यों तथा विषघात के लिए गोबर का उपयोग किया जाता है। ये अनाहार्य द्रव्य हैं। अतः आगाढ़ कारण के बिना इन्हें परिवासित रखकर उपयोग करने से लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में बताया गया है कि तत्काल का विसर्जित, छाया में स्थित, अशुष्क माहिष-गोमय (भैंस का गोबर) आशु विषघाती होता है, विषापहार में अधिक गुणकारी होता है। इस दृष्टि से भी परिवासित गोबर का वर्जन अपेक्षित है।
१८. सूत्र ४१, ४२
उद्यतविहारी संविग्न भिक्षु को अपने से भिन्न समाचारी वाले असांभोजिक भिक्षु से भी अपना वैयावृत्य नहीं करवाना और न ही उस निमित्त से उनके साथ आहार, पानी का आदान-प्रदान करना, फिर गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक की तो बात ही क्या ? गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक को सम्पूर्ण सावद्ययोग का त्याग नहीं होता। वे भिक्षु की उपधि को सचित्त पृथिवीकाय, वनस्पतिकाय आदि पर गिरा सकते हैं, मलिन एवं दुर्गन्धयुक्त उपकरणों को देखकर घृणा से अवर्णवाद कर सकते हैं, पात्र आदि का हरण कर सकते हैं । अतः
१. कप्पो ५/३८, ३९
२. निभा. गा. ४२०१
२६९
३. निसीह. १२/३३-४०
४. निभा. गा. ४१९९ ( सचूर्णि )
५. वही, गा. ४२०५
६. वही, गा. ४२०६
७. कप्पो ४/२९
भिक्षु उनसे अपनी उपधि का वहन न करवाए।'
'यह मेरा उपकरण वहन करता है'-ऐसा सोचकर उसे अशन, पान आदि देना भी साधु-चर्चा के योग्य कार्य नहीं भिक्षु से प्राप्त अशन, पान आदि से बलवृद्धि कर वह सावद्य कार्यों में प्रवृत्त होता है, वहां भी प्रकारान्तर से भिक्षु को अनुमोदना का दोष लगता है । उसे खाने के बाद कोई व्याधि आदि हो जाए तो निन्दा, शासन की अप्रभावना आदि अन्य दोष भी संभव हैं।
१९. सूत्र ४३
भगवान महावीर ने षड्जीवनिकाय का प्रतिपादन किया। चलने-फिरने वाले उस प्राणियों के समान पृथिवी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति भी सजीव है। बड़ी-बड़ी और अत्यधिक जल वाली नदियों में अष्काधिक जीवों के साथ-साथ वनस्पतिकायिक जीव एवं छोटे-बड़े सप्राणी भी होते हैं। उन्हें भुजाओं से अथवा कुम्भ, ऋति, नौका आदि साधनों से तैरना, पार करना अहिंसा महाव्रत का अतिचार है एवं इसमें अन्य अनेक व्यावहारिक दोष भी संभव हैं।
उद्देशक १२ : टिप्पण
कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) तथा ठाणं में गंगा, यमुना आदि पांच नदियों में एक महीने में दो अथवा तीन बार उत्तरण एवं संतरण का निषेध प्राप्त है। प्रस्तुत सूत्र में उसी का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत सूत्र में भी ठाणं के समान एरावती' नदी को महार्णव महानदी माना है, जबकि कप्पो (बृहत्कल्प सूत्र ) में इसके स्थान पर कोशिका का ग्रहण किया गया है तथा कुणाला में प्रवहमान ऐरावती को जंघासंतार्य मानते हुए उसे पार करने की विधि का निर्देश दिया गया है।' आधारचूला में नौका द्वारा नदी पार करने के समान जंघासंतार्य जल को पार करते समय भी सम्पूर्ण शरीर का प्रमार्जन, साकार भक्त-प्रत्याख्यान एवं 'एगं पायं जले किच्चा, एगं पायं धले किच्चा इस सम्पूर्ण विधि का निर्देश दिया गया है। " ठाणं में इन नदियों के विस्तार आदि की संक्षिप्त जानकारी मिलती है। ११ शब्द-विमर्श
१. महार्णव- समुद्र की भांति अथाह जलवाली। १२ २. उत्तरण - भुजाओं से तैरकर पार करना ।
३. संतरण - कुंभ, हति, नौका आदि से पार करना । ३ तुलना हेतु द्रष्टव्य ठाणं ५/९८ का टिप्पण, कप्पो ४/ २९,३० का टिप्पण तथा नवसुत्ताणि पृ. ५८५ का फुटनोट ७
८. ठाणं ५ / ९८
९. कप्पो ४ / ३०
१०. आचू. ३/१५, ३४
११. ठाणं १०/२५ का टिप्पण
१२. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३६४
१३. वही, गा. ४२०९