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________________ निसीहज्झयणं २५९ मग्गातिक्कंत-पदं* मार्गातिक्रान्त-पदम् ३२. जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ यो भिक्षुः परं अर्धयोजन मेराओ' परेण परेण असणं वा पाणं वा खाइमं वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा साइमं वा उवातिणावेति, उपादापयति (अतिक्रामयति), उवातिणावेंतं वा सातिज्जति॥ उपादापयन्तं (अतिक्रामयन्तं) वा स्वदते। उद्देशक १२: सूत्र ३२-३६ मार्गातिक्रान्त-पद ३२. जो भिक्षु अर्धयोजन की मर्यादा से परे (से अधिक दूर तक) अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य ले जाता है अथवा ले जाने वाले का अनुमोदन करता है। १६ गोमय-पदं ३३. जे भिक्खू दिवा गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिवा कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा, आलिंपतं वा विलिंपतं वा सातिज्जति॥ गोमय-पदम् यो भिक्षुः दिवा गोमयं प्रतिगृह्य दिवा काये व्रणम् आलिम्पेद्वा विलिम्पेद्वा, आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते। गोमय-पद ३३. जो भिक्षु दिन में गोबर ग्रहण कर अपने शरीर पर हुए व्रण का दिन में आलेपन करता है अथवा विलेपन करता है और आलेपन अथवा विलेपन करने वाले का अनुमोदन करता है। ३४. जे भिक्खू दिवा गोमयं पडिग्गाहेत्ता यो भिक्षुः दिवा गोमयं प्रतिगृह्य रात्रौ रत्तिं कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा काये व्रणम् आलिम्पेद्वा विलिम्पेद्वा, विलिंपेज्ज वा, आलिंपतं वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते। विलिपंतं वा सातिज्जति॥ ३४. जो भिक्षु दिन में गोबर ग्रहण कर अपने शरीर पर हुए व्रण का रात में आलेपन करता है अथवा विलेपन करता है और आलेपन अथवा विलेपन करने वाले का अनुमोदन करता है। ३५.जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता यो भिक्षुः रात्रौ गोमयं प्रतिगृह्य दिवा दिवा कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा काये व्रणम् आलिम्पेद् वा विलिम्पेद्वा, विलिंपेज्ज वा, आलिंपंतं वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते। विलिंपतं वा सातिज्जति॥ ३५. जो भिक्षु रात में गोबर ग्रहण कर अपने शरीर पर हुए व्रण का दिन में आलेपन करता है अथवा विलेपन करता है और आलेपन अथवा विलेपन करने वाले का अनुमोदन करता है। ३६.जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता यो भिक्षुः रात्रौ गोमयं प्रतिगृह्य रात्रौ रत्तिं कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा काये व्रणम् आलिम्पेद् वा विलिम्पेद्वा, विलिंपेज्ज वा, आलिंपंतं वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते। विलिंपंतं वा सातिज्जति॥ ३६. जो भिक्षु रात में गोबर ग्रहण कर अपने शरीर पर हुए व्रण का रात में आलेपन करता है अथवा विलेपन करता है और आलेपन अथवा विलेपन करने वाले का अनुमोदन करता है। * नवसुत्ताणि में प्रस्तुत पद का शीर्षक खेत्तातिक्कंत पदं दिया हुआ है। चूंकि यह पाठ क्षेत्र सम्बन्धी मर्यादा के अतिक्रमण के सन्दर्भ में है, इसलिए संगत भी हो सकता है परन्तु भगवई ७/२४ में मग्गातिकंत पाणभोयण की परिभाषा यह की गई हैजे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावेत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! मग्गातिक्कंते पाणभोयणे। चूंकि आगम के मूलपाठ में अर्धयोजन की मर्यादा के अतिक्रमण को मार्गातिक्रान्त कहा गया है, अतः प्रस्तुत सूत्र का शीर्षक 'मग्गातिक्कंतपदं' अधिक संगत प्रतीत होता है, इसलिए हमने यहां यही शीर्षक रखा है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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