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________________ आमुख प्रस्तुत उद्देशक का केन्द्रीय तत्त्व है-अहिंसा एवं अपरिग्रह । इस संदर्भ में त्रस प्राणियों को बांधने एवं बन्धनमुक्त करने, परित्तकाय-संयुक्त आहार करने, सलोम चर्म तथा गृहस्थ के वस्त्र से आच्छन्न पीठ आदि पर बैठने, गृहस्थ के वस्त्र, पात्र आदि का उपयोग, पुरःकर्मदोष तथा रूपासक्ति एवं चक्षुरिन्द्रिय के आकर्षण से किए जाने वाले कार्यों के प्रायश्चित्त का प्रज्ञापन किया गया है। अहिंसा महाव्रत की सम्यक् परिपालना के लिए निर्ग्रन्थ नवकोटि विशुद्ध भिक्षा के द्वारा अपना जीवनयापन करता है। वह आहार-प्राप्ति के लिए न स्वयं आरम्भ-समारम्भ करता है, न करवाता है और न अन्य (करने वाले) का अनुमोदन करता है। वह गृहस्थों से यथाकृत आहार को माधुकरी वृत्ति से ग्रहण कर अस्वाद वृत्ति के साथ उसका भोग करता है। पानभोजन के प्रसंग में सूत्रकार का निर्देश है कि भिक्षु चार प्रकार के अतिक्रमण से बचने का प्रयास करे-क्षेत्रातिक्रमण, कालातिक्रमण, मार्गातिक्रमण एवं प्रमाणातिक्रमण। प्रस्तुत उद्देशक में कालातिक्रमण एवं मार्गातिक्रमण पानभोजन का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। निशीथभाष्य एवं उसकी चूर्णि में इनसे होने वाले अनेक दोषों का वर्णन करते हुए एक प्रश्न उपस्थित किया गया है प्रश्न-आहार करना दोष का मुख्य हेतु है। अतः श्रेयस्कर है कि सतत आहार ही न किया जाए। आचार्य-कार्य के दो प्रकार हैं-साध्य और असाध्य । उचित साधन के द्वारा साध्य कार्य को करने वाला सफल होता है और असाध्य कार्य को सिद्ध करने वाला मात्र क्लेश को प्राप्त करता है। मोक्ष का साधन है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । उनके लिए शरीर अपेक्षित है और देहधारण के लिए आहार । अतः साध्य-प्राप्ति के लिए शास्त्रोक्त विधि से आहार का ग्रहण एवं धारण करना अनुज्ञात है। गच्छवासी अपेक्षानुसार पहली प्रहर में गृहीत अशन, पान आदि को दूसरी और तीसरी प्रहर में रखे अथवा अर्द्धयोजन की मर्यादा तक उसे ले जाए तो दोषभाक् नहीं। जिनकल्पी सर्वथा निरपवाद होते हैं, अतः वे जिस प्रहर में जिस ग्राम, नगर आदि में अशन, पान आदि ग्रहण करते हैं, उसी में उसे पूर्णतः समाप्त कर देते हैं। इसी प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में पुरःकर्म कृत हाथ, पात्र, दर्वी आदि से भिक्षा ग्रहण करने, पृथिवीकाय, अप्काय आदि पांच स्थावरकायों के स्वल्पमात्र भी समारम्भ करने, सचित्त वृक्ष पर आरोहण करने, परित्तकाय-संयुक्त आहार करने तथा सलोम चर्म पर अधिष्ठित होने का प्रायश्चित्त कथन किया गया है, जो अहिंसा महाव्रत की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सलोम चर्म शुषिर होता है, उसके रोओं के भीतर छोटे-छोटे प्राणी सम्मूर्च्छित हो सकते हैं, इसलिए भिक्षु को उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। इस प्रसंग में बृहत्कल्पभाष्य में बताया गया है कि सलोम चर्म का स्पर्श पुरुष के स्पर्श के समान होता है। अतः ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए निर्ग्रन्थी को सलोम चर्म ग्रहण करना नहीं कल्पता। निशीथभाष्य के अनुसार निर्ग्रन्थ के लिए निर्लोम चर्म का निषेध ब्रह्मव्रत की सुरक्षा के लिए किया गया है। आगाढ़ कारण को छोड़कर भिक्षु रात्रि में परिवासित आलेपन से शरीर पर आलेपन, विलेपन तथा तैल, घृत आदि से अभ्यंगन, म्रक्षण नहीं कर सकता। प्रस्तुत उद्देशक में दिवा-रात्रि की चतुर्भंगी के द्वारा परिवासित गोबर एवं विविध प्रकार के आलेपनों से व्रण के आलेपन एवं विलेपन का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। ज्ञातव्य है कि परिवासित अशन, पान का आहार करने से १. भग. ७/२४ २. निभा. गा. ४१५६-४१६० ३. वही, गा. ४०११,४०१२ ४. कप्पो ५/३८,३९
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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