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उद्देशक ११:टिप्पण
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निसीहज्झयणं शब्द विमर्श
करने वाला। वह सैद्धान्तिक दृष्टि से, चारित्रिक दृष्टि से एवं १. मंसादीयं-जिस भोज में सर्वप्रथम मांस परोसा जाए, मांस परलोक आदि के विषय में अनेक सूत्रविरुद्ध प्ररूपणाएं करता है। लाने के लिए जाते हुए अथवा मांस लाने के बाद जो भोज किया यथाच्छन्द की प्रशंसा करने तथा उसे वन्दना, नमस्कार करने जाता है, वह मांसादिक भोज कहलाता है।'
से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है। शैक्ष की मिथ्या अवधारणाओं २. मच्छादीयं-जिस भोज में सर्वप्रथम मत्स्य परोसा जाए, को पोषण मिलता है। फलतः शैक्ष एवं अभिनवधर्मा श्रमणोपासक मत्स्य लेने जाते समय अथवा मछली पकड़ कर आने के बाद दिया उन्मार्ग में प्रस्थित हो सकते हैं। अतः उसकी प्रशंसा करना-'उत्सूत्र जाने वाला भोज मत्स्यादिक भोज कहलाता है।
होने पर भी इसकी प्ररूपणा यौक्तिक है' इत्यादि कहना, उसे वन्दना ३. मंसखलं, मच्छखलं-वे स्थान, जहां मांस और मत्स्य करना, बार-बार उसका संसर्ग करना प्रतिषिद्ध है। ऐसा करने वाले सुखाए जाएं, क्रमशः मसंखल और मच्छखल कहलाते हैं। भिक्षु को गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।१२
४. आहेणं, पहेण-जो अन्य घर से लाया जाए, वह भोजन १८. सूत्र ८५-८७ 'आहेण' तथा अन्य घर में ले जाया जाए, वह भोजन 'पहेणं' अनल का अर्थ है-अयोग्य । ३ वय, जाति, वेद (काम-वासना कहलाता है। एक अन्य व्याख्या के अनुसार वधूगृह से वरगृह में ले की उत्कटता), शारीरिक विकलांगता, अस्वास्थ्य आदि अनेक जाया जाने वाला 'आहेण' और वरगृह से वधूगृह में ले जाया जाने कारणों से प्रव्रज्या की अर्हता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। भाष्यकार वाला 'पहेणग' होता है। अथवा वर और वधू के घर से एक दूसरे के के अनुसार अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां तथा दस घर पर ले जाया जाने वाला सारा आहेणक' और अन्यतः ले जाया प्रकार के नपुंसक प्रवज्या के योग्य नहीं होते। जहां किसी जाने वाला पहेणक' होता है।
आपवादिक परिस्थिति में उन्हें दीक्षित करना अनिवार्य हो, वहां उन्हें ५.संमेलं-विवाह-भक्त (भोज) अथवा गोष्ठीभक्त (गोठ) उपस्थापना (विभागपूर्वक महाव्रतों का प्रशिक्षण एवं प्रत्याख्यान) 'सम्मेल' कहलाता है।
नहीं दी जाती, ताकि कार्य-परिसमाप्ति पर उनका विवेक किया जा ६.हिंगोलं-मृतक के उपलक्ष्य में किया जाने वाला श्राद्धविशेष । सके।५ भाष्य एवं चूर्णि के अनुसार उन्हें न मुंडित किया जाता, न 'हिंगोल' कहलाता है।
शिक्षित एवं उपस्थापित किया जाता और न उनके साथ संभोज एवं १६. सूत्र ८२
संवास किया जाता।६ निवेदनपिण्ड का अर्थ है-मनौतिपूर्वक अथवा मनौति के बिना प्रस्तुत आलापक के अन्तिम सूत्र में अयोग्य से वैयावृत्य पूर्णभद्र, मणिभद्र आदि, अरिहंतपाक्षिक देवों यक्ष, व्यन्तरदेव आदि करवाने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। प्रश्न हो के लिए उपहृत अशन, पान आदि।" इसे ग्रहण करने पर स्थापित, सकता है कि दीक्षा एवं उपस्थापना का निषेध करने के बाद इस सूत्र मिश्रजात आदि दोष संभव हैं। अतः प्रस्तुत सूत्र में निवेदनापिण्ड- का क्या प्रयोजन? चूर्णिकार कहते हैं-प्रव्रज्या और उपस्थापना के नैवेद्य द्रव्य खाने वाले भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया योग्य व्यक्ति भी वैयावृत्य के अयोग्य हो सकते हैं। जिसने पिण्डैषणा गया है। भाष्यकार ने प्रस्तुत संदर्भ में कुछ अपवादों एवं उनमें नैवेद्य का सूत्रतः एवं अर्थतः ज्ञान नहीं किया, जो वैयावृत्य के प्रति श्रद्धावान पिण्ड की ग्रहण-विधि का निर्देश दिया है।
नहीं अथवा जो अकल्प्य का परिहार (वर्जन) नहीं करता, वह भिक्षु १७. सूत्र ८३,८४
वैयावृत्य के लिए अयोग्य माना गया है। अतः अयोग्य से वैयावृत्य यथाच्छन्द का अर्थ है-अपने अभिप्राय के अनुसार प्ररूपणा करवाने वाले के लिए पृथक् प्रायश्चित्त-सूत्र का निर्देश प्राप्त है। १. निभा. भा. ३ चू. पृ. २२२,२२३
१०. वही, पृ. २२५-छंदोऽभिप्रायः, यथा स्वाभिप्रेतं तथा प्रज्ञापयन् २. वही
अहाछंदो भवति। ३. वही, पृ. २२२-मंसखलं जत्थ मंसाणि सोसिज्जंति एवं गच्छखलं ११. विस्तार हेतु द्रष्टव्य वही, गा. ३४९२-३४९९ पि।
१२. वही, गा. ३५००, ३५०१ ४. वही, पृ. २२२,२२३
१३. वही, भा. ३ चू. पृ. २२८-न अलं अनलं अपर्याप्त:-अयोग्य ५. वही, पृ. २२३
इत्यर्थः। ६. वही, पृ. २२३-जं मतभत्तं करडुगादियं तं हिंगोलं।
१४. वही, गा. ३५०५-३५०८ (विस्तार हेतु द्रष्टव्य ३५०९-३७७१) ७. वही, पृ. २२४-उवाइयं अणोवाइयं वा जं पुण्णभद्द-माणिभद्द- १५. वही, गा. ३६०८-कए तु कज्जे विगिचणता।
सव्वाणजक्ख-महंडिमादियाण निवेदिज्जति, सो निवेयणापिंडो। १६. वही भा. ३ चू. पृ. २७८-जति अणलो पव्वावितो 'सिअ' त्ति वही, पृ. २२५-एत्थ ओसक्कण-मीसजाय-ठवियदोसा।
अजाणया जाणया वा कारणेण, सेसं पणगं णायराविज्जति । तं च ९. वही, गा. ३४९१ सचूर्णि।
इमं-मुंडावण सिक्खावण उवट्ठावणा संभुंजण संवासे ति। १७. वही, गा. ३७७३ व उसकी चूर्णि (सम्पूर्ण)