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टिप्पण
१. सूत्र १-३
प्रस्तुत पात्र-पद में लोहे, तांबे, सोने, चांदी आदि पन्द्रह प्रकार के पात्रों का उल्लेख हुआ है। मुनि के लिए धातुनिर्मित एवं बहुमूल्य पात्रों का निर्माण एवं उपयोग निषिद्ध है। मुनि इन विविध प्रकार के महान् मूल्य वाले पात्रों को अप्रासुक एवं अनेषणीय मानता हुआ ग्रहण न करे।
निशीथभाष्यकार के अनुसार महार्घ्य पात्रों को धारण करने वाला भिक्षु गणनातिरिक्त अथवा प्रमाणातिरिक्त पात्र भी धारण कर लेता है। वह भार, स्तेनभय आदि के कारण विहार नहीं करता। पात्र के लोभ से स्तेन आदि उसे परितापित करते हैं, मारते हैं, कलह करते हैं, जिससे आत्मविराधना एवं संयमविराधना होती है । चोरी के भय से वह पात्र का प्रतिलेखन नहीं करता। पात्र की चोरी होने पर उसके मनःसंताप पैदा होता है-इत्यादि अनेक दोषों की संभावना होने से बहुमूल्य पात्रों का उपयोग निषिद्ध है।
___ आयारचूला एवं निसीहज्झयणं के उपर्युक्त पाठों से प्रतीत होता है कि उस समय अनेक प्रकार के तथा अनेक धातुओं, रत्नों
आदि से पात्र बनाए जाते थे। निशीथचूर्णि के अनुसार विशिष्ट शिल्प-कौशल के द्वारा मुक्ता, प्रस्तर एवं वस्त्र को पुटिकाकार बनाकर पात्र निर्माण होता था। शब्द विमर्श
.स्वर्णपात्र, जातरूपपात्र-स्वर्ण एवं जातरूप पर्यायवाची नाम हैं। इनकी भिन्नता के विषय में सभी व्याख्याकार मौन हैं।
.हारपुट पात्र-लोहे आदि के ऐसे पात्र, जिन पर मोतियों के हार अथवा मौक्तिकलताओं से विशेष कलाकारी की जाती थी, सजाया जाता था, हारपुट पात्र कहलाते थे।'
• अंकपात्र-अंक रत्न की एक जाति है।' रत्नप्रकाश के अनुसार अंक का अर्थ है पन्ना, जो नीम की पत्ती के समान पीत १. आचू. ६/१३ २. निभा. भा. ३ चू. पृ. १७३ ३. वही, पृ. १७२-मुक्ता शैलमयं प (वा) सेप्पतो खलियं वा
पुडियाकारं कज्जइ। ४. वही-हारपुडं णाम अयमाद्याः पात्रविशेषाः मौक्तिकलताभिरुप
शोभिता। ५. पाइय.
आभा वाला हरे रंग का रत्न होता है। उत्तरज्झयणाणि में शुक्ललेश्या के वर्ण के लिए शंख, अंक, मणि, कुंदपुष्प आदि की उपमा दी गई है। इससे इसका वर्ण श्वेत मानना अधिक संगत प्रतीत होता है। २.सूत्र ४-६
धातुघटित एवं बहुमूल्य पात्रों के समान ही धातुओं आदि के बन्धन से बांधे गए पात्रों का भी आयारचूला में निषेध किया गया है। विविध प्रकार के बहुमूल्य बंधनों से बद्ध पात्रों को रखने में भी प्रायः वे ही दोष संभव हैं जो उनसे निर्मित पात्रों को रखने में आते हैं। अतः दोनों में समान प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ३. सूत्र ७
आयारचूला में विधान है कि भिक्षु अथवा भिक्षुणी पात्रप्राप्ति की प्रतिज्ञा से आधे योजन (साधिक छह किमी.) की मर्यादा से आगे जाने का संकल्प न करे।
प्रस्तुत सूत्र में उपर्युक्त विधि के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। जो भिक्षु पात्रैषणा के लिए इससे दूर जाता है, वह आज्ञाभंग, आत्म-संयम विराधना आदि दोषों को प्राप्त होता है। सूत्र-पौरुषी एवं अर्थ-पौरुषी का भंग होने से सूत्रार्थ-नाश की भी संभावना रहती है। ४. सूत्र८
आहार के समान वस्त्र, पात्र आदि के उत्पादन में भी भिक्षु को उद्गम एवं एषणा के दोषों का वर्जन करना होता है। अतः वह औद्देशिक, क्रीत, प्रामित्य, आहृत आदि दोषों से दुष्ट पात्र को अनेषणीय मानता हुआ ग्रहण न करे।" वह सामान्यतः स्वयं के प्रवासक्षेत्र तथा उसके पार्श्ववर्ती आधे योजन तक के क्षेत्र में पात्रप्राप्ति का प्रयत्न करता है। प्रस्तुत सूत्र इस विधि का अपवाद है।
भिक्षु को पात्र की अत्यन्त अपेक्षा हो, स्वयं के क्षेत्र में एषणीय पात्र न हो, जहां पात्र मिलने की संभावना हो, वहां अशिव,
७. उत्तर. ३४/९ ८. आचू. ६/१४ ९. वही ६/१ १०. निभा. गा. ३२८५, ३२८७ सचूर्णि। ११. आचू. ६/४