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________________ आमुख प्रस्तुत उद्देशक के मुख्य प्रतिपाद्य हैं बहुमूल्य पात्र के ग्रहण, धारण एवं परिभोग का प्रायश्चित्त, अभिहत पात्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त, धर्म एवं दिवाभोजन के अवर्णवाद तथा अधर्म एवं रात्रिभोजन के वर्णवाद का प्रायश्चित्त, अन्यतीर्थिव एवं गृहस्थ का शरीर-परिकर्म करने, रात्रिभोजन-विरमण व्रत के अतिचार तथा वैराज्य, विरुद्धराज्य आदि में गमनागमन करने का प्रायश्चित्त, निवेदनापिण्ड ग्रहण करने, यथाच्छन्द की वन्दना-प्रशंसा करने, अयोग्य के दीक्षा देने एवं उससे वैयावृत्य करवाने, सचेल-अचेल के संवास तथा बालमरण आदि का प्रायश्चित्त। दसवें उद्देशक के अन्तिम सूत्र में कालप्रतिषेध का कथन किया गया है। प्रस्तुत उद्देशक का प्रारम्भ भाव-प्रतिषेध से हुआ है। विविध प्रकार के धातुघटित पात्र, हाथीदांत के पात्र, शंख, वस्त्र आदि से निर्मित अथवा उन-उन बन्धनों से बद्ध कलाकारी वाले पात्र रखना, उनका निर्माण अथवा परिभोग करना संयमानुकूल प्रवृत्ति नहीं है। गणनातिरिक्त, प्रमाणातिरिक्त एवं बहुमूल्य उपकरण संयम की दृष्टि से अनुपयोगी होने के कारण अधिकरण होते हैं। निशीथभाष्य एवं चूर्णि के अनुसार इस प्रकार के पात्र आदि रखने से भार, परितापना, मारण, अधिकरण, सूत्रार्थ-पलिमंथु, आज्ञालोप, मनःसंताप आदि दस दोष संभव हैं। भिक्षु तीन प्रकार के पात्र रख सकता है-मिट्टी का, काष्ठ का एवं तुम्बे का। सामान्यतः ये पात्र भी उसे अर्धयोजन की मर्यादा में तृतीय प्रहर में गवेषणीय हैं। यदि ग्लान्य, भिक्षा, वसति आदि की दुर्लभता आदि कारणों से समूचा संघ उस क्षेत्र में न जा सके तो कुछ पात्रकल्पिक भिक्षु द्विगुण, त्रिगुण अथवा चतुर्गुण पात्र ला सकते हैं। यदि अर्द्धयोजन की मर्यादा से अधिक दूरी पर पात्र-प्राप्ति की संभावना हो और मार्ग अनेक विघ्न-बाधाओं से युक्त हो तो भी सामान्यतः गृहस्थ के द्वारा पात्र नहीं मंगवाये जा सकते। प्रस्तुत उद्देशक में सूत्रकार ने धर्म और दिवाभोजन के अवर्णवाद एवं अधर्म तथा रात्रिभोजन के वर्णवाद को प्रायश्चित्तार्ह कार्य बताया है। इस प्रसंग में व्याख्या-साहित्य में धर्म के प्रकार, अवर्णवाद के स्वरूप एवं प्रकारों का विशद विवेचन मिलता है। इसी प्रकार दिवाभोजन के दोष एवं रात्रिभोजन के गुण क्या बतलाए जा सकते हैं, कोई किस प्रकार उनका क्रमशः अवर्णवाद एवं वर्णवाद करता है, इसका भी संक्षिप्त वर्णन मिलता है। रात्रिभोजन विरमण व्रत भी महाव्रतों के समान त्रिकरण, त्रियोग से पालनीय है अतः दिन में गृहीत अशनादि को रात्रि में उपभोग करना अथवा परिवसित रखकर अगले दिन उपभोग करना, रात्रि में ग्रहण-उपभोग करना, आगाढ़ कारण के बिना अशन, पान आदि को परिवासित रखना, परिवासित अशन, पान आदि को स्वल्पमात्र भी खाना तथा सोंठ, पीपल आदि सामान्य औषध द्रव्य को बासी रखकर खाना रात्रिभोजन-विरमण नामक षष्ठ व्रत का अतिचार है। भक्ष जिस गांव. नगर अथवा राज्य में रहता है, वहां की सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं, स्थितियों एवं परिस्थितियों से उसकी साधना प्रभावित होती है। जहां राजनैतिक अराजकता हो, राजा एवं उसके अधिकारियों का पारस्परिक वैमनस्य हो, राजा कालधर्म को प्राप्त हो गया हो अथवा दो, तीन राजाओं में परम्परागत वैर-विरोध हो, वैसे राज्यों में गमनागमन करने से भिक्षु के प्रति चोर, लुटेरा, जासूस आदि होने की शंका हो सकती है। उसके साथ कानूनी कठोरता बरती जा सकती है, अन्य भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है अतः इस प्रकार के गणराज्य, यौवराज्य, दोराज्य, वैराज्य एवं विरुद्धराज्य में भिक्षु विहार की प्रतिज्ञा से न जाए। जो वहां बारम्बार गमनागमन करता है, वह राज्यसीमा एवं जन १. निभा. गा. ३२८० (सचूर्णि) २. आचू. ३/१०
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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