SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निसीहज्झयणं २१७ उद्देशक १०: टिप्पण ६. विचिकित्सासमापन्न संदिग्ध मनःस्थिति वाला। २. विकालवेला-कुछ आचार्यों के अनुसार विकालवेला का ७. विगिंचन-परिष्ठापन।' अर्थ है-संध्या का अपगम । जबकि अन्य मत के अनुसार संध्या को ८. विशोधन-आहार आदि के लेप का मार्जन करना, धोना।२ । विकाल वेला कहते हैं। १५. सूत्र २९ १६. (सूत्र ३०,३१) मुनि संयतभोजी होता है। उसके लिए प्रमाणोपेत आहार का जो भिक्षु ग्लान की अग्लानभाव से सेवा करता है, वह तीर्थ विधान है। यद्यपि सबके लिए एक समान आहार का परिमाण नहीं की सेवा करता है, तीर्थंकर की सेवा करता है तथा प्रवचन की बताया जा सकता, फिर भी आनुपातिक रूप में उसका निर्धारण प्रभावना करता है। उसे विपुल निर्जरा का लाभ होता है। अतः करना आवश्यक है। मुनि का एक विशेषण है-संयमयात्रामात्रावृत्तिकः। किसी के द्वारा सुनकर अथवा स्वयं जानकारी मिलने पर भिक्षु को मुनि को उतना ही आहार करना चाहिए, जितने से उसकी संयमयात्रा तत्काल ग्लान की गवेषणा करनी चाहिए। जो भिक्षु ग्लान के विषय सम्यक् प्रकार से चल सके। जिस प्रकार गाड़ी के अक्ष की धुरी पर में सुनकर भी उसके वैयावृत्य में उपस्थित नहीं होता अपितु उन्मार्ग, अंजन लगाया जाता है, व्रण पर यथावश्यक लेप किया जाता है, अन्य मार्ग या प्रतिपथ से चला जाता है, सेवा से जी चुराता है, उसी प्रकार मुनि उतना ही खाए जितना उसके जीवन-निर्वाह के लिए अथवा स्वयं की अक्षमता का बहाना बनाता है। उसे आज्ञाभंग, आवश्यक हो। जितने भोजन से संयमयोगों की हानि न हो, वही अनवस्था आदि दोष प्राप्त होते हैं, कुलस्थविर, गणस्थविर एवं मुनि के भोजन का प्रमाण है।' संघस्थविर उसे उपालम्भ देते हैं। वे उसे कहते हैं क्या तुम ग्लान भगवई में मुनि के लिए बत्तीस कवल आहार को प्रमाणोपेत __ को करवट बदलाने, उसे क्ष्वेडमल्लक देने अथवा ग्लान के परिचारकों माना गया है। बत्तीस कवल से एक भी कवल कम खाने वाला मुनि की उपधि-प्रतिलेखना जैसे छोटे-छोटे कार्यों में भी अक्षम हो?' इस 'प्रकामरसभोजी' नहीं कहलाता।' प्रस्तुत प्रसंग में ओवाइयं का प्रकार अशक्तता आदि का बहाना बनाकर सेवा से बचने वाले को द्रव्य-अवमौदरिका का प्रकरण भी द्रष्टव्य है। उपालम्भ एवं प्रायश्चित्त प्रदान कर वैयावृत्य का महत्त्व बढ़ाया प्रश्न होता है-किसी कारणवश मात्रा का अतिक्रमण हो जाने जाता है, वैयावृत्य करने वालों का उपबृंहण किया जाता है। से अथवा कभी-कभी प्रमाणोपेत भोजन करने पर भी वायु आदि के प्रस्तुत प्रसंग में भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने वैयावृत्य करने क्षुब्ध हो जाने से यदि भोज्यकण सहित या पानयुक्त उद्गार आ वाले भिक्षु की विशेषताओं, वैद्य के पास जाने एवं उसे बुलाने की जाए तो मुनि को क्या करना चाहिए। सूत्रकार कहते हैं-रात्रि अथवा विधि आदि अनेक विषयों का विस्तृत विवेचन किया है। विकालवेला में पान-भोजन सहित उद्गार आ जाए तो उसे निगलना १७. (सूत्र ३२,३३) नहीं चाहिए। जो भिक्षु ग्लान की वैयावृत्य में नियुक्त है, उसके प्रति पान-भोजन सहित उद्गार को रात्रि या विकालवेला में अन्य भिक्षुओं का तथा अन्य भिक्षुओं के प्रति उसका क्या निगलने वाला भिक्षु रात्रिभोजन व्रत में अतिचार लगाता है। दायित्व बनता है तथा वे परस्पर एक दूसरे का सहयोग किस प्रकार अतः कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) के अनुसार उसे रात्रिभोजन व्रत कर सकते हैं-इसका सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत सूत्रद्वयी में उपलब्ध होता के भंग से प्राप्त होने वाला चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। है। प्रस्तुत आगम में भी इसके लिए गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का जो भिक्षु ग्लान की वैयावृत्य में नियुक्त है, यदि वही उसके विधान है। लिए प्रायोग्य भक्तपान एवं औषध आदि द्रव्य लाता है, वही उसकी शब्द विमर्श शारीरिक परिचर्या में भी संलग्न है तो कई बार वेला का अतिक्रमण १. रात्रि-कुछ आचार्यों के अनुसार रात्रि का अर्थ है-संध्या। होने के कारण उसे यथेष्ट लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। अपेक्षित द्रव्य जबकि एक अन्य मत के अनुसार रात्रि का अर्थ है-संध्या का । के अभाव में ग्लान का एवं स्वयं का सम्यक निर्वाह दुष्कर हो जाता अपगम। है, आत्मविराधना एवं प्रवचन की अप्रभावना की भी संभावना हो १. निभा. भा. २ चू. पृ.६८-विगिंचमाणे त्ति परिठविते। माहारेमाणे समणे णिग्गंथे नो पकामरसभोइत्ति वत्तव्वं सिया। २. वही-विसोहेमाणे त्ति णिरवयवं करेंतो। ६. ओवा. सू.३३ ३. भग. ७/२४-अक्खोवंजणाणुलेवण-भूयं संजमजायामायावत्तियं । ७. कप्यो. ५/१० ४. बृभा. गा. ५८५२ ८. निभा. भा. ४, चू. पृ. १०६ ५. भग. ७/२४-बत्तीसं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहार- ९. वही, गा. २९८४ माहारेमाणे पमाणपत्ते, एत्तो एक्केण वि घासेणं ऊणगं आहार- १०. वही, गा. २९७१-३१२७
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy