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उद्देशक १० : सूत्र २७,२८
निसीहज्झयणं
णाइक्कमइ, जोतंभुंजति, भुजंतं वा स्वदते । सातिज्जति॥
तथा विशोधन–मुख आदि की शुद्धि करता हुआ विधि का अतिक्रमण नहीं करता। किन्तु जो उसका भोग करता है अथवा भोग करने वाले का अनुमोदन करता है।
२७. जे भिक्खू उग्गयवित्तीए यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकः २७. जो भिक्षु उद्गतवृत्तिक–सूर्योदय हो चुका
अणथमिय-मणसंकप्पे असंथडिए अनस्तमितमनःसंकल्पः 'असंथडिए' है, इस वृत्ति वाला तथा अनस्तमितमनः णिव्वितिगिच्छा-समावण्णे णं (असंस्तृतः) निर्विचिकित्सासमापन्नः संकल्प-सूर्यास्त नहीं हुआ है, इस मानसिक अप्पाणे णं असणं वा पाणं वा आत्मा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं संकल्प वाला, असमर्थ तथा सूर्योदयखाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता वा प्रतिगृह्य भुङ्क्ते, भुजानं वा स्वदते। सूर्यास्त के विषय में असंदिग्ध आत्मा वाला भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति।
है, वह अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य को ग्रहण कर भोग करता है अथवा भोग
करने वाले का अनुमोदन करता है। अह पुण एवं जाणेज्जा-अणुग्गए अथ पुनरेवं जानीयात्-अनुद्गतः सूर्यः बाद में वह इस प्रकार जाने-सूर्य उदित नहीं सूरिए अत्थमिए वा से जं च मुहे जं अस्तमितोवा, तस्य यच्च मुखे यच्च पाणी हुआ है अथवा अस्त हो चुका है, तो वह च पाणिंसि जं च पडिग्गहंसि तं यच्च प्रतिग्रहे तद् विविञ्चन् विशोधयन् जो मुंह में है, जो हाथ में है तथा जो पात्र में विगिंचेमाणे विसोहेमाणे नातिक्रामति, यस्तद्भुङ्क्ते, भुजानं वा है, उसका विवेचन-परिष्ठापन करता हुआ णाइक्कमइ, जोतं भुंजति, भुंजंतं वा स्वदते।
तथा विशोधन–मुख आदि की शुद्धि करता सातिज्जति॥
हुआ विधि का अतिक्रमण नहीं करता। किन्तु जो उसका भोग करता है अथवा भोग करने वाले का अनुमोदन करता है।
२८. जे भिक्खू उग्गयवित्तीए यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकः अनस्तमित- २८. जो भिक्षु उद्गतवृत्तिक-सूर्योदय हो चुका
अणथमिय-मणसंकप्पे असंथडिए मनःसंकल्पः 'असंथडिए' (असंस्तृतः) है, इस वृत्ति वाला तथा अनस्तमितमनःवितिगिच्छा-समावण्णे णं अप्पाणे विचिकित्सासमापन्नः आत्मा अशनं वा संकल्प-सूर्यास्त नहीं हुआ है, इस मानसिक णं असणं वा पाणं वा खाइमं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य संकल्प वाला, असमर्थ तथा सूर्योदयसाइमंवा पडिग्गाहेत्ता भुंजति, भुंजंतं भुङ्क्ते, भुजानं वा स्वदते।
सूर्यास्त के विषय में संदिग्ध आत्मा वाला वा सातिज्जति।
है, वह अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य को ग्रहण कर भोग करता है अथवा भोग
करने वाले का अनुमोदन करता है। अह पुण एवं जाणेज्जा-अणुग्गए __ अथ पुनरेवं जानीयात्-अनुद्गतः सूर्यः बाद में वह इस प्रकार जाने-सूर्य उदित नहीं सूरिए अत्थमिए वा से जं च मुहे जं अस्तमितोवा, तस्य यच्च मुखे यच्च पाणी हुआ है अथवा अस्त हो चुका है, तो वह च पाणिंसि जं च पडिग्गहंसि तं यच्च प्रतिग्रहे तद् विविञ्चन् विशोधयन् जो मुंह में है, जो हाथ में है, जो पात्र में है, विगिंचेमाणे विसोहेमाणे णाइक्कमइ नातिक्रामति, यस्तद् भुङ्क्ते, भुजानं वा उसका विवेचन-परिष्ठापन करता हुआ तथा जो तं भुंजति, भुंजंतं वा स्वदते।
विशोधन-मुख आदि की शुद्धि करता हुआ सातिज्जति॥
विधि का अतिक्रमण नहीं करता। किन्तु जो उसका भोग करता है अथवा भोग करने वाले का अनुमोदन करता है।"