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निसीहज्झयणं
९. सूत्र १२
जिस स्थान पर राजा ठहरा हुआ हो, उस स्थान पर दूसरेतीसरे दिन रहने, आहार आदि करने, उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन करने तथा किसी भी प्रकार की अश्रमणप्रायोग्य कथा कहने वाले भिक्षु को प्रायश्चित्तार्ह माना गया है। जहां राजा रहता है, उस स्थान पर कुछ छूट गया हो, खो गया हो तो भिक्षु पर आरोप की संभावना रहती है। वहां रहने पर विविध प्रकार की भोग सामग्री, चित्र आदि देखने से भुक्तभोगों की स्मृति अथवा तादृश कुतूहल के कारण मोहोदभव की संभावना भी रहती है। अतः ऐसे निवास प्रवास स्थानों का वर्जन करना चाहिए।
१०. सूत्र १३-१८
कोई राजा शत्रु - विजय अथवा युद्ध हेतु प्रस्थान करते समय ब्राह्मणों आदि को भोजन करवाता है, कोई विजय यात्रा से लौटकर उसकी खुशी में भोज देता है। इसी प्रकार हाथियों को वश में करने के लिए गिरियात्रा तथा जलक्रीड़ा आदि के लिए नदीयात्रा पर जाने से पूर्व और लौटने के बाद राजाओं के द्वारा भोज का आयोजन किया जाता है। ये सब भी राजपिण्ड ही हैं अतः इनके विषय में भी वे ही दोष तथा वही प्रायश्चित्त ज्ञातव्य है, जो पूर्वसूत्रों में कहा जा चुका है । "
शब्द विमर्श
१. बहिया जत्तासंठिया बहियांत्रा का अर्थ है शत्रु पक्ष पर विजय प्राप्ति के निमित्त की जाने वाली यात्रा । भाष्य-गाथा २५६५ के अनुसार यहां पट्ठिय तथा गा. २५६६ के अनुसार यहां 'संपट्टिय' शब्द होना चाहिए। किन्तु आदर्शों में प्रस्तुत सूत्र में 'संठिय' शब्द मिलता है अतः इसे इसी रूप में संप्रस्थित अर्थ में स्वीकार किया गया है ।
२. गिरिजत्ता - हाथियों को पकड़ने के लिए गिरियात्रा की जाती है।
१९. सूत्र १९
जिस समय राजा के महाराज्याभिषेक का उत्सव मनाया जाता है, उस समय यदि भिक्षु वहां पहुंचता है तो जनाकीर्ण स्थान में होने वाले संयमविराधना एवं आत्मविराधना आदि दोष तो होते ही हैं, साथ ही यदि राजा और उसके पारिवारिक जन भद्रप्रकृति के हों तो १. निभा. गा. २५५९
२. वही, गा. २५६०, २५६१
३. वही भा. २, चू. पृ. ४६१- जाहे परविजयट्ठा गच्छति ताहे मंगलसंतिणिमित्तं दिवादीण भोषण कार्य गच्छति, पडिणियत्ता विजए संखडिं करेति ।
४. वही, गा. २५६४
५. वही, गा. २५६६ - गिरिजत्ता गयगहणी ।
६. वही, गा. २५६८, २५६९
उद्देशक ९ टिप्पण
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भिक्षु को देखकर उनमें मंगलबुद्धि उत्पन्न होती है और संयोगवश यदि उसके राज्य में कोई मांगलिक कार्य हो जाए, विजय प्राप्त हो जाए तो वह अपनी हर मांगलिक प्रवृत्ति में भिक्षु के दर्शन करना चाहेगा। यदि राजा आदि रुक्षप्रकृति के हों तो अमंगलबुद्धि और अमांगलिकता की आशंका के कारण ये सदा भिक्षु से बचना चाहेंगे। इस प्रकार भिक्षु उसकी प्रवृत्ति-निवृत्ति में कारणभूत होने से अधिकरण का निमित्त बन सकता है । प्रान्त प्रकृति वाला राजा भिक्षु का प्रतिषेध अथवा किसी द्रव्य का व्यवच्छेद कर सकता है' अतः भिक्षु को महाराज्याभिषेक के अवसर पर उस कार्यक्रम के दौरान प्रवेशनिष्क्रमण नहीं करना चाहिए।
शब्द विमर्श
महाभिसेय-ईश्वर, तलवर आदि के पदाभिषेक की अपेक्षा महाराज्याभिषेक का कार्यक्रम विशिष्ट एवं बड़ा होता है अतः उसे महाभिषेक कहा जाता है।"
१२. सूत्र २०
प्राचीन काल में १. चम्पा - अंगदेश २ मथुरा - सूरसेन ३. वाराणसी काशी ४. श्रावस्ती कुणाल ५. साकेत कौशल ६. हस्तिनापुर कुरु ७. कांपिल्य- पांचाल ८. मिथिला विदेह ९. कौशाम्बी - वत्स तथा १०. राजगृह-मगध की राजधानी थी। इनमें भारत, सगर, मघवा सनत्कुमार, शान्ति, कुन्धु अर, महापद्म, हरिषेण एवं जय राजा मुंडित होकर प्रव्रजित हुए।' निशीथभाष्य के अनुसार बारह चक्रवर्ती राजाओं में शान्ति, कुन्थु एवं अर-ये तीन एक राजधानी में उत्पन्न हुए तथा शेष नौ अन्य नौ राजधानियों में इस प्रकार ये दस उनके जन्मस्थान हैं, प्रव्रज्या स्थान नहीं ।' निशीथचूर्णि के अनुसार ये बारह चक्रवर्ती राजाओं की राजधानियां है।" आवश्यक निर्युक्ति" के अनुसार सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर एवं सुभूम-ये पांच हस्तिनापुर में उत्पन्न हुए स्थानांग वृत्ति" के अनुसार चक्रवर्ती के जन्मस्थान ही उनके प्रव्रज्या स्थान हैं-'ये च यत्रोत्पन्नास्ते तत्रैव प्रव्रजिताः ' सुभूम एवं ब्रह्मदत्त प्रव्रजित नहीं हुए। ऐसी स्थिति में कौन कहां प्रव्रजित हुए यह अनुसंधान का विषय है।
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निशीथभाष्य के अनुसार चक्रवर्ती राजाओं की राजधानियों में प्रवेश- निष्क्रमण के निषेध से वासुदेवों की राजधानियां तथा अन्य जनाकीर्ण नगरों का भी निषेध सूचित होता है।" क्योंकि वहां जाने ७. वही २, पू.पू. ४६२ ईसरतलवरमादियाणं अभिसेगाण महंततरो अभिसेसो महाभिसेओ, अधिरायत्तेण अभिसेओ ।
८.
ठाणं १० / २८
९. निभा. गा. २५९०, २५९१
१०. वही, भा. २ चू.पू. ४६६ - बारसचक्कीण एया रायहाणीओ। ११. आवनि. ३९७
१२. स्था. वृ. पृ. ४५४
१३. निभा. भा. २ चू.पू. ४६६ - जासु वा णगरीसु केसवा अण्णा वि जा जणाइण्णा सा वि वज्जणिज्जा ।