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________________ निसीहज्झयणं १५७ फुमेज्ज वा रज्ज वा, फुमेंतं वा रएंतं (फूत्कुर्याद्) वा रजेद् वा, 'फुमेंतं' वा सातिज्जति ॥ (फूत्कुर्वन्तं) वा रजन्तं वा स्वदते । दीह - रोम-पदं ६३. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई भमुग-रोमाइं कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥ ६४. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाइं पास-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥ मल-णीहरण-पदं ६५. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेंतं वा विसोर्हेतं वा सातिज्जति ।। ६६. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणaडिया अण्णमण्णस्स अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णहमलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेंतं वा विसोर्हेतं सातिज्जति ॥ वा सीसवारिय-पदं ६७. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दूइज्जमाणे दीर्घरोम-पदम् यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य दीर्घाणि श्रूरोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य 'पास' रोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । मलनिस्सरण-पदम् यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य कायात् स्वेदं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा निस्सरेद् वा विशोधयेद् वा, निस्सरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य अक्षिमलं वा कर्णमलं वा दन्तमलं वा नखमलं वा निस्सरेद् वा विशोधयेद् वा, निस्सरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदते । शीर्षद्वारिका-पदम् यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ग्रामानुग्रामं दूयमानः अन्योन्यस्य उद्देशक ७ : सूत्र ६३-६७ भिक्षु की आंखों पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है और फूंक देने अथवा रंग लगाने वाले का अनुमोदन करता है। दीर्घरोम - पद ६३. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु की भौहों की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है । ६४. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म- सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु के पार्श्वभाग की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। मलनिर्हरण-पद ६५. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु के शरीर के स्वेद, जल्ल, पंक अथवा मल का निर्हरण करता है अथवा विशोधन करता है और निर्हरण अथवा विशोधन करने वाले का अनुमोदन करता है। ६६. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म- सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु की आंख के मैल, कान के मैल, दांत के मैल अथवा नख के मैल का निर्हरण करता है अथवा विशोधन करता है और निर्हरण अथवा विशोधन करने वाले का अनुमोदन करता है। शीर्षद्वारिका पद ६७. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से ग्रामानुग्राम
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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