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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक का केन्द्रीय तत्त्व है ब्रह्मचर्य । इस सन्दर्भ में सूत्रकार ने मातृग्राम को एतद्विषयक निवेदन, हस्तकर्म, अंगादान विषयक विविध अकरणीय कार्यों के करने, कामकलह, तविषयक लेखन, पोषान्त-पृष्ठान्त विषयक प्रतिसेवनाओं, कामभावना से अहत, कृत्स्न, धौत-रक्त, मलिन आदि वस्त्रों के धारण, शरीर के विविध प्रकार के परिकर्म एवं प्रणीत आहार करने का प्रायश्चित्त बतलाया है। अब्रह्मचर्य के संकल्प से अथवा चित्त की तादृशी कुत्सित भावना से किया गया कर्म चेतना की संक्लिष्ट अवस्था का परिचायक है। अतः वह मैथुन संज्ञा के अंतर्गत है।
प्रस्तुत उद्देशक में सभी सूत्रों में 'माउग्गाम' और 'मेहणवडिया' दो शब्दों का अनुवर्तन हुआ है। इन दो शब्दों को छोड़ दिया जाए तो सम्पूर्ण 'हत्थकम्म-पदं' नामक आलापक इसी आगम के प्रथम उद्देशक में तथा पायपरिकम्म, कायपरिकम्म आदि से 'सीसदुवारिया पदं' पर्यन्त चौवनसूत्रीय आलापक तृतीय उद्देशक में आ चुका है, किन्तु वहां इनका प्रयोजन अब्रह्म भाव नहीं है। अतः वहां इनका प्रायश्चित्त क्रमशः अनुद्घातिक मासिक एवं उद्घातिक मासिक है। प्रस्तुत प्रसंग में भाष्यकार ने मातृग्राम स्त्री के तीन प्रकार किए हैं-दिव्य, मानुषिक और तैरश्च । पुनः प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार किए हैंप्रकार दिव्य मानुषिक
तैरश्च १.जघन्य वाणव्यन्तर प्राजापत्य
भेड़, बकरी आदि २. मध्यम भवनवासी, ज्योतिष्क कौटुम्बिक
घोड़ी, शूकरी आदि ३. उत्कृष्ट वैमानिक दाण्डिक
गाय, भैंस आदि पुनः इनके दो-दो भेद हो जाते हैंदेहयुक्त और प्रतिमायुक्त । इसी प्रसंग में प्रतिमायुक्त के दो भेद-सन्निहित और असन्निहित करते हुए भाष्यकार ने बताया है कि कदाचित् वह प्रतिमा भद्रदेवता के द्वारा अधिष्ठित हो तो वह विभ्रम आदि कर सकती है, फलतः उसका वहीं प्रतिबंध हो सकता है। यदि वह प्रतिमा प्रान्तदेवता द्वारा अधिष्ठित हो तो वह उस व्यक्ति को क्षिप्तचित्त आदि कर सकती है। इस प्रकार भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने दिव्य, मानुषिक एवं तिर्यंच से अब्रह्म के अवभाषण से होने वाले अनेक संभाव्य दोषों की चर्चा की है। सम्पूर्ण प्रसंग को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में दुर्भिक्ष अशिव, राजाभियोग आदि के कारण साधुओं को किस प्रकार की भीषण परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। इसी क्रम में भाष्य में मोहचिकित्सा का भी सविस्तर वर्णन उपलब्ध होता है।
इसी प्रकार काम-भावना से लेख/पत्र आदि लिखना, विविध प्रकार के वस्त्रों को धारण करना, विगय खाना आदि क्रियाएं करना भी ब्रह्मचर्य के लिए घातक प्रवृत्तियां हैं। अतः प्रस्तुत उद्देशक में इन सबका भी अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
मोह के प्रबल उदय से अल्पसत्त्व व्यक्ति किस-किस प्रकार का आचरण कर लेता है-प्रस्तुत उद्देशक इसका सुन्दर निदर्शन है।
१. निभा. गा. २१९९ (सचूर्णि)