________________
निसीहज्झयणं
छोटा नहीं होना चाहिए, अन्यथा निकटवर्ती पृथिवीकाय, वनस्पतिकाय एवं स जीवों आदि का प्लावन एवं विराधना संभव है। जो स्थान एक रत्नि (हाथ) लम्बा, एक रत्नि चौड़ा एवं चार अंगुल अवगाढ़ (चार अंगुल नीचे तक अचित्त) हो, वह जपन्य विस्तीर्ण स्थान है। इससे कम परिमाण वाला स्थंडिल शुद्र स्थंडिल है।'
१७. सूत्र १११
स्थंडिल सामाचारी का पालन न करना परिष्ठापन की अविधि है।' निशीथभाष्यकार ने विधि की पांच द्वारों से व्याख्या की है।" १. उच्चारादि के परित्याग से पूर्व भिक्षु ऊर्ध्व, अधो आदि दिशाओं का अवलोकन करे, ताकि गृहस्थ आदि उसको विसर्जन करते देख उड्डाह न करे ।
२. विसर्जन से पूर्व पैर, स्थंडिल आदि का प्रतिलेखन, प्रमार्जन करे, ताकि त्रस एवं स्थावर जीवों की विराधना न हो।
३. जहां धूप आए, वैसे स्थान में विसर्जन करे। मल में कृमि आते हों तो छाया में विसर्जन करे।
४. दिशा, पवन, ग्राम, सूर्य आदि से अविपरीत दिशा में, दिन में उत्तराभिमुख एवं रात में दक्षिणाभिमुख बैठे ।
५. 'अणुजाणह जस्स उग्गहं' आदि विधि का पालन करे । * १८. सूत्र ११२-११७
इन छह सूत्रों में उच्चार विसर्जन के बाद की विधि के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। विसर्जन-स्थान (गुदाप्रदेश) की वस्त्रखंड आदि से सफाई तथा आचमन मुख्यतः उच्चार के बाद किया जाता है। उच्चार के साथ प्रस्रवण भी होता है। इस दृष्टि से उच्चारप्रवण पाठ की रचना हुई है।
सूत्र ११५ में प्रयुक्त 'तत्थेव' पद का आशय है-जिस स्थान पर उच्चार किया, उसी स्थान पर आचमन न किया जाए।
१. निभा. गा. १८६४, १८६५
२.
वही, भा. २, चू. पृ. २९९ - थंडिल सामायारीं ण करेति एसा अविधि । ३. वही, गा. १८७०
४. वही, गा. १८७१, १८७२
५. वही, भा. २, चू. पू. ३०१ - उच्चारे वोसिरिज्जमाणे अवस्सं पासवणं
भवति त्ति तेण गहितं ।
६. वही - तत्थेव त्ति थंडिले जत्थ सण्णा वोसिरिया 1
९५
उद्देश ४ : टिप्पण
मैं सूत्र ११६ प्रयुक्त 'अतिदूरे' पद का आशय है कि जहां उच्चार किया, उससे बहुत दूर (सौ हाथ या उससे दूर) जाकर आचमन न करे।"
संक्षेप में इन सूत्रों का प्रयोजन है सूत्रार्थ हानि, आत्मविराधना, संयमविराधना एवं प्रवचन की अप्रभावना आदि दोषों का निवारण | "
शब्द विमर्श
१. आचमन निर्लेपन, पानी से शौच क्रिया करना। २. णावापूर-नाव का अर्थ है चुल्लू" अतः नावापूर तात्पर्य है चुल्लू भर पानी ।
१९. सूत्र ११८
तपः प्रायश्चित्त के मुख्यतः दो प्रकार हैं-शुद्ध तप और परिहार तप । जो भिक्षु जघन्यतः बीस वर्ष की पर्यायवाला, नवें पूर्व की तृतीय आचार वस्तु का ज्ञाता तथा धृति एवं संहनन से बलवान हो, उसे ही परिहार तप दिया जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त परिहारी शब्द से उस परिहारतपः प्रायश्चित्त का वहन करने वाले भिक्षु का ग्रहण किया गया है। परिहारतप के काल में उसके साथ दस पदों का परिहार किया जाता है-आलाप, प्रतिपृच्छा, परिवर्तना उत्थान, वंदन, मात्रक, प्रतिलेखन, संघाटक, भक्तदान और संभोजन। गच्छवासी भिक्षुओं को परिहारतपस्वी के साथ आलाप, सूत्रार्थ, प्रतिपृच्छा, साथ में भिक्षार्थ जाना, आना आदि कुछ भी नहीं करना होता।" प्रस्तुत सूत्र में संघाटक विधि के अतिक्रमण का प्रायश्वित्त प्रज्ञप्त है। अग्रिम दो पदों-भक्तदान एवं संभोजन के अतिक्रमण से गच्छवासी भिक्षुओं को क्रमशः लघु चातुर्मासिक एवं गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । १२
७.
८.
वही - अतिदूरे हत्थसयपमाणमेत्ते ।
वही, गा. १८७८
वही, पृ. ३०२ - आयमणं णिल्लेवणं ।
-
९.
१०. वही - नावत्ति पसती ।
१९. वही, गा. २८८१
१२. वही, गा. २८८२