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निसीहज्झयणं
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उद्देशक ४ : टिप्पण इसलिए इन्हें खाना संयम के लिए पलिमंथु, संयमविराधना एवं निशीथभाष्य म स्थापना-कुल के दो प्रकार बतलाए गए आत्मविराधना का हेतु माना गया है।'
हैं-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक स्थापना कुल के पुनः दो ४. सूत्र २०
प्रकार हो जाते हैं-१. इत्वरिक-मृतक और सूतक वाले कुल (मृत्यु जिस आहार से इन्द्रिय एवं मन विकृत होते हैं, स्वादलोलुप एवं जन्म की अशुचि आदि के कारण लौकिक दृष्टि से वर्जित कुल) होकर धातुओं को उद्दीप्त करते हैं, वह सरस आहार विकृति कहलाता तथा २. यावत्कथिक-जाति, शिल्प आदि से जुगुप्सित कुल। है। विकृतियां दस हैं-१. दूध, २. दही, ३. नवनीत, ४. घृत, ५. लोकोत्तर स्थापना-कुल के अनेक प्रकार हैं, जैसे-दानश्राद्ध तैल, ६. गुड़, ७. मधु, ८. मद्य, ९. मांस और १०. चलचल आदि विशिष्ट कुल, साधु-सामाचारी एवं एषणा दोषों को न जानने अवगाहिम (मिठाई आदि)। रस-परित्याग तप से साधक इन्द्रिय
वाले अभिगम श्राद्धकुल, मिथ्यादृष्टिभावित कुल, मामक एवं विजय एवं निद्राविजय की साधना में आगे बढ़ सकता है। रात्रि में
अप्रीतिकर कुल। देर तक स्वाध्याय, ध्यान आदि करने पर भी उसके अजीर्ण आदि
इसी प्रकार प्राचीन काल में उपाश्रय से संबद्ध सात घरों को भी रोग पैदा नहीं होते। अतः आगमों में भिक्षु के लिए बारम्बार
भिक्षार्थ स्थापित रखा जाता था, उसमें सामान्यतः हर साधु गोचरी विकृति-वर्जन का निर्देश उपलब्ध होता है।
के लिए नहीं जा सकता था। प्रस्तुत सूत्र में आचार्य एवं उपाध्याय की अनुज्ञा के बिना
लौकिक स्थापना कुलों में जाने से प्रवचन की अप्रभावना, विगय खाने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इसका तात्पर्य है कि कारण में
यशोहानि एवं श्रावकों के विपरिणमन आदि दोषों की संभावना रहती आचार्य आदि की अनुज्ञापूर्वक यथाविधि परिमित विगय खाने में
है। अतः उसका वर्जन किया जाता है। दोष नहीं। जिस श्रुत का अध्ययन आदि योग प्रारम्भ किया हुआ
लोकोत्तर स्थापना कुलों में मिथ्यात्वी, मामक एवं अप्रीतिकर हो, उसके उपधान में जिस विगय का वर्जन करना अनिवार्य हो, उसे
कुलों में जाने पर संयम-विराधना एवं आत्म-विराधना आदि दोष खाना अथवा प्रत्याख्यान की कालमर्यादा पूरी होने से पूर्व विकृति खाना सदोष है।
संभव हैं। ईर्ष्या, द्वेष आदि के कारण वे गृहस्थ भिक्षु को विष आदि विगय विषयक विस्तार हेतु द्रष्टव्य-ठाणं ९।२३ का टिप्पण
दे सकते हैं। अथवा अन्य कष्ट दे सकते हैं, अतः उनका वर्जन तथा उत्तरज्झयणाणि ३०१८ का टिप्पण।
किया जाता है। ५. सूत्र २१
लोकोत्तर स्थापनाकुलों में जो दानश्राद्ध कुल होते हैं तथा स्थापना-कुल की दो परिभाषाएं उपलब्ध होती हैं
जिनमें गुरु, ग्लान, शैक्ष आदि के प्रायोग्य द्रव्य उपलब्ध होते हैं, उन १. वे कुल, जिनका आहार मुनि के लिए भोज्य नहीं होता,
घरों में भी निर्दिष्ट संघाटक के अतिरिक्त अन्य भिक्षुओं का भिक्षार्थ स्थापना-कुल कहलाते हैं।
प्रवेश निषिद्ध होता है, अतः वे भी स्थाप्य होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में २. गीतार्थ द्वारा स्थापित वे विशिष्ट कुल, जहां निर्दिष्ट इन स्थापना कुलों की जानकारी, पृच्छा एवं गवेषणा किए बिना गीतार्थ संघाटक के अतिरिक्त अन्य संघाटकों का प्रवेश निषिद्ध हो, गोचरी हेतु प्रविष्ट होने वाले के लिए प्रायश्चित्त का कथन किया स्थापना-कुल कहलाते हैं। इस प्रकार जो किसी देश, काल या गया है क्योंकि इससे संघीय सामाचारी का उल्लंघन होता है तथा परिस्थिति विशेष में भिक्षार्थ अप्रवेश्य के रूप में स्थापित किए जाएं, बार-बार उन घरों में प्रवेश करने से उद्गम, एषणा आदि दोषों की वे कुल स्थापना-कुल कहलाते हैं।
संभावना रहती है।१२ भाष्यकार कहते हैं-गच्छ महानुभाग है-बाल, १. निभा. गा. १५९०
७. वही, गा. १६१७ २. वही, गा. १५९८
ठवणाकुल तु दुविहा, लोइयलोउत्तरा समासेणं हुंति । ३. वही. गा.१६१३
इत्तरिय-आवकहिया, दुविधा पुण लोइया। इच्छामि कारणेणं, इमेण विगई इमं तु भोत्तुं जे।
वही, गा. १६१८ एवतियं वा वि पुणो, एवतिकाल विदिण्णंमि ।।
सूयग-मतग-कुलाई, इत्तरिया जे य होंति णिज्जूढा। ४. वही, गा. १५९३, १५९६, १६१०,१६१५
जे जत्थ जुंगिता खलु, ते होंति आवकहिया तु॥ ५. वही, भा. २ चू. पृ. २४३-ठप्पाकुला ठवणाकुला अभोज्जा इत्यर्थः । (क) वही, गा. १६२०
(क) वही-साधुठवणाए वा ठविज्जति त्ति ठवणाकुला (ख) दसवे. ५/१/१७ के टिप्पण ७५-७७ सेज्जातरादित्यर्थः।
१०. निभा. गा. १६२३ (ख) वही, पृ. २४५-अतिसयदव्वा उक्कोसा ते जेसुकुलेसुलभंति, ११. वही, भा. २चू. पृ. २४४ (गा. १६२० की चूर्णि) ते ठावियव्वा, ण सव्वसंघाडगा तेसु पविसंति।
१२. वही, गा. १६३२
किं कारणं चमढणा, दव्वक्खओ उग्गमो वि य ण सुझे। गच्छम्मिणिययकज्जं, आयरिय-गिलाण पाहुणए।