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________________ उद्देशक ४ : सूत्र ८०-८५ ह - सिहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज कप्पेतं वा संठवतं वा वा, सातिज्जति ॥ दीह - रोम-पदं ८०. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाई जंघ - रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति । ८१. जे भिक्खु अण्णमण्णस्स दीहाई वत्थि - रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥ ८२. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।। ८३. जे भिक्खु अण्णमण्णस्स दीहाई कक्खाण - रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज या कप्पेतं वा संठवतं वा सातिज्जति ॥ ८४. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाई मंसु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेंतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥ दंत-पदं ८५. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दंते आघंसेज्ज वा पसेज्ज वा, आघसंतं वा पसंतं वा सातिज्जति ॥ ८४ कल्पेत वा संस्थापयेद वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । दीर्घरोम-पदम् यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दीर्घाणि जंघारोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दीर्घाणि वस्तिरोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दीर्घरोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः अन्योन्यस्य कक्षारोमाणि कल्पे वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दीर्घाणि श्मश्रुरोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । दंत-पदम् यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दन्तान् आघर्षेद् वा प्रर्षेद् वा आघर्षन्तं वा प्रघर्षन्तं वा " स्वदते । निसीहज्झयणं नखशिखा को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। दीर्घरोम पद ८०. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की जंघाप्रदेश की दीर्घ रोमराजि को काटता है। अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है । ८१. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की वस्तिप्रदेश की दीर्घ रोमराजि को काटता है। अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। ८२. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की दीर्घ रोमराज को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। ८३. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे की कक्षाप्रदेश की दीर्घ रोमराज को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है । ८४. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की श्मश्रु की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है । दंत पद ८५. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु के दांतों का आघर्षण करता है अथवा प्रघर्षण करता है और आघर्षण अथवा प्रमर्पण करने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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