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टिप्पण
१. सूत्र १-८
प्रस्तुत आलापक में आगंतागार, आरामागार आदि भिक्षा के लिए अनुपयुक्त स्थानों में गृहस्थ आदि से किसी वस्तु को मांगने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है क्योंकि ऐसा करने से गृहस्थ को अप्रीति हो सकती है। भद्र प्रकृति वाला गृहस्थ उद्गम आदि दोषों में प्रवृत्त हो सकता है। शब्द विमर्श
१. आगंतागार-यात्रीगृह, जहां आगन्तुक आकर रहें या जो आगन्तुकों के लिए बनाया जाए।
२. आरामागार-आराम (विविध लताओं से सुशोभित, दम्पति के क्रीड़ा स्थल) में बने घर (कदली आदि के प्रच्छन्न
गृह)।
३. गाहावतिकुल-गृहपतिकुल' ४. परियावसह-आश्रम
५. ओभास-अवभाषण करना। निशीथभाष्य एवं चूर्णि में अवभाषण का अर्थ उपलब्ध नहीं होता। आवश्यक वृत्ति में अवभाषण का अर्थ विशिष्ट द्रव्य की याचना किया गया है।
६.कोउहल्लपडिया-कुतूहलवश। २. सूत्र ९-१२
आगन्तागार आदि स्थानों में सामने लाकर दी जाने वाली भिक्षा का एक बार मुनि निषेध कर देता है और किस प्रकार चाटुकारीपूर्वक पुनः उसी को लेने के लिए तत्पर हो जाता है इस सूत्र चतुष्टयी में इसका सुन्दर निरूपण हुआ है। १. निभा. भा. २, चू. पृ. १९९-आगंतारो जत्थ आगारी आगंतु चिटुंति
तं आगंतागारं । गामपरिसट्ठाणं त्ति वुत्तं भवति । आगंतुगाण वा कयं
आगारं आगंतागारं बहियावासे त्ति। २. (क) वही-आरामे आगारं आरामागारं।।
(ख) आराम शब्द के लिए द्रष्टव्य-ठाणं, पृ. १४५। . ३. निभा. भा. २ चू. पृ. १९९-गिहस्स पती गिहपती, तस्स कुलं
गिहपति-कुलं, अन्यगृहमित्यर्थ । ४. वही-गिहपज्जायं मोत्तुं पव्वज्जापरियाए ठिता तेसिं आवसहो
परियावसहो। ५. वही, पृ. २०२-कोऊहल्ल-पडियाए कोऊहलप्रतिज्ञया, कोतुके
णेत्यर्थः। ६. वही, गा. १४६०,१४६१
प्रस्तुत आलापक में इसका प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है, क्योंकि ऐसा करने से गृहस्थ का मुनि के वचनों के प्रति विश्वास समाप्त हो जाता है। शब्द विमर्श
१. अभिहडं आहट्ट-सामने लाकर। २. अणुवत्तिय-पीछे-पीछे जाकर।' ३. परिवेढिय-आगे, पीछे या पार्श्व में ठहरकर ।'
४. परिजविय-तुम्हारा श्रम असफल न हो-ऐसा कहकर। ३. सूत्र १३
जिस घर का स्वामी भिक्षु को कहे-'मेरे यहां कोई न आए' वह घर मामक कुल कहलाता है। दसवेआलियं में मामक कुल के वर्जन का स्पष्ट निर्देश मिलता है।९ भिक्षा हेतु वहां प्रवेश करने पर अनेक प्रकार के दोषों की संभावना को देखते हुए ही प्रस्तुत सूत्र में उसे प्रायश्चित्तार्ह माना गया है।
विस्तार हेतु द्रष्टव्य-निभा. गा. १४६६-१४७० शब्द विमर्श
१. पडियाइक्खिए-प्रतिषिद्ध । १२ ४. सूत्र १४
प्रस्तुत सूत्र में संखड़ी प्रलोकना-रसवती में जाकर खाद्य पदार्थों को देखकर निर्देश पूर्वक ग्रहण करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है । संखड़ी का अर्थ है-भोज या जीमनवार ।१३ संखड़ी में जाने से जनाकीर्ण स्थान में जाने पर आने वाले आत्मविराधना एवं संयमविराधना आदि दोष तो आते ही हैं। साथ ही साथ उस भोज में निमंत्रित अन्य ७. वही, भा. २ पृ. २०३-अभिहडं आमुखेन हृतं अभिहृतं । ८. वही-अणुवत्तिय त्ति सत्तपदाइं गंता। ९. वही-परिवेढिय त्ति पुरतो पिट्ठतो पासतो ठिच्चा। १०. वही-परिजविय त्ति परिजल्प्य, तुब्भेहिं एवं अम्हट्ठा आणियं, मा
तुब्भ अफलो परिस्समो भवतु, मा वा अधिर्ति करेस्सह । ११. दसवे. ५।१।१७-मामगं परिवज्जए। १२. निभा. भा. २, चू.पृ. २०५-पडियाइक्खिए त्ति प्रत्याख्यातः......
प्रत्याख्यातो प्रतिषिद्धः। १३. (क) वही, पृ. २०६-आउआणि जम्मि जीवाण संखडिज्जंति सा
संखडी। (ख) दसवे. ७।३६ का टिप्पण।