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________________ 92 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा सकता है। धर्म शब्द ध+मन से निष्पन्न है। " धीयते लोकोऽनेन धरति लोकं वा धर्मः अथवा इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्मः" अर्थात् जो इष्ट स्थान मुक्ति में पहुंचाता है अथवा जिसके द्वारा लोक श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त करता है अथवा जो लोक को श्रेष्ठ स्थान में स्थापित करता है वही धर्म है। धर्म को धारण करने वालों को, शक्ति और समर्पण की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम तो वे जो शक्ति से हीन हैं, एवं सम्पूर्ण समर्पण देने में भी अक्षम हैं फिर भी धर्मधारण करने के लिए लालायित हैं - इस श्रेणी में श्रावकगण आते हैं जिनको कि जैन दर्शन में ग्यारह प्रतिमाओं में विभक्त किया गया है। द्वितीय, वे महापौरुषवन्त एवं समर्पित व्यक्तित्व आते हैं, जो धर्म धारणार्थ सदा उद्यमवन्त रहते हैं। इस वर्ग में "श्रमण" शामिल हैं, जो सदा "श्रम" में समभाव से अथवा शम रूप से लगे रहते हैं, जिनका मात्र यही व्यवसाय रहता है। धर्म का इस प्रकार का विभाजन आचार्य पदानन्दि ने किया है। उन्होंने कहा कि धर्म, सम्पूर्ण धर्म और देश धर्म के भेद से दो प्रकार का है। इनमें से प्रथम भेद में दिगम्बर श्रमण और द्वितीय भेद में श्रावकस्थित होते हैं।' यहाँ पर वस्तुतः धर्म तो एक ही है, परन्तु जो उसको सर्वांशतः पालन नहीं कर सकता है, उसे अपनी शक्ति अनुसार पालन करना चाहिए। अतः जितना धर्माचरण है, उतना तो श्रेष्ठ है, शेष आचरण अधर्म का ही कारण है, और वे पापाचरण से भी जब छूटेंगे तो ही उसे सम्पूर्णतः धर्मात्मा कह सकते हैं, और इसे ही द्वितीय शब्दों में महाव्रत-अणुव्रत कहते हैं। द्वितीय, यह तथ्य भी द्रष्टव्य है कि प्रथम श्रमण धर्म कहा पश्चात् श्रावक धर्म कहा; क्योंकि श्रमण के समक्ष जाने पर वे प्रथम मूलधर्म रूप श्रामण्य का ही उपदेश देते हैं, यदि श्रावक की उतनी शक्ति न हो तो फिर ग्यारह प्रतिमाएँ श्रावक धर्म धारण की व्यवस्थाएँ हैं, परन्तु मूल/साक्षात्/वास्तविक धर्म तो श्रामण्य ही है। धर्म के स्वरूप को परिभाषित करते हुए जैन दर्शन में कहा "वत्थु सभावोधम्मो" अर्थात् वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। अतः इस जगत में प्रत्येक द्रव्य चेतन-अचेतन स्वयं में धर्मी है, इस अपेक्षा से अधर्मी नामक तत्व जगत में है ही नहीं, परन्तु वह चेतन द्रव्य जो धर्म अर्थात स्वभाव को न जानकर अन्य द्रव्यों के धर्मों में हस्तक्षेप करने की असफल कोशिश करते हुए अपने धर्म से अज्ञात रहता है, जैन दर्शन के अनुसार वही विधर्मी है। जैन दर्शन के अनुसार भगवान वस्तु स्वरूप से बन्धित होते हैं, वस्तु स्वरूप कभी भगवानों से बंधता नहीं है। जो भगवान वस्तु स्वरूप से नहीं बंधते, वे भगवान नहीं हुआ करते। उदाहरणार्थ-अग्नि स्वरूप का प्रतिपादक अग्नि से बँधता है अर्थात् जैसी अग्नि है वैसा ही उसे कहना पड़ता है, अन्यथा उसका कथन असत्य है। अतः, अग्नि कदापि वक्ता के बन्धन को स्वीकार नहीं करती है, अपितु वक्ता अग्नि के बन्धन को स्वीकारता है। अग्नि का स्वभाव (धर्म) त्रिकाल एक हुआ करता है, उसके दाहकत्व में तो हीनाधिकता हो सकती,
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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