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________________ 80 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा प्रसाद जी ने काष्ठा संघ की उत्पत्ति की कल्पना की है कि यह संघ मथुरा के निकट जमुना के तट पर स्थित काष्ठा नामक ग्राम से निकला है।३० या हो सकता है कि काष्ठासंघ जैन श्रमणों के उस समुदाय का नाम पड़ा हो, जिसका मुख्य स्थान काष्ठा नामक स्थान था137 । काष्ठ की प्रतिमा बनाकर पूजने के कारण काष्ठा संघ के प्रवर्तन की कोई तार्किक संतुष्टि नहीं मिलती क्योंकि उस समय पाषाण प्रतिमाओं का प्रचलन था ही, तथा इस प्रकार के प्रतिमा निर्माण के विधि-विधान का साहित्य में कोई उल्लेख नहीं मिलता है तथा ऐसी कोई पुरातात्विक सामग्री भी प्राप्त नहीं होती है, जैन साधु के लिए देव दर्शन आवश्यक अंग भी नहीं है, और न ही उनके द्वारा प्रतिमा निर्माण का विधान ही है। अतः काष्ठ प्रतिमा को पूजने जैसा प्रसंग भी प्राप्त नहीं होता है। अतः स्थान विशेष के नाम को लेकर काष्ठा संघ की प्रवृत्ति ही ज्यादा तथ्यपूर्ण लगती है क्योंकि ऐसा अन्य संघों की उत्पत्ति के साथ भी हुआ है। परन्तु दूसरी तरफ प्राचीन साहित्यकारों ने काष्ठ की प्रतिमा पूजने के कारण काष्ठासंघ की उत्पत्ति की कल्पना की है। ऐसी परिस्थिति में अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। यह एक स्वतंत्र शोध का विषय हो सकता है। काष्ठासंघ मथुरान्वय के प्रसिद्ध आचार्यों में सुभाषित रत्नसंदोह आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता आचार्य अमितगति हो गये हैं जो परमार नरेश मुंज और भोज के समकालीन थे। काष्ठासंघ के प्रमुख गच्छ या शाखाएं चार थीं-नन्दि तट, माथुर, बागड़ और लाटबागड़। ये चारों नाम स्थानों और प्रदेशों के नाम पर आधारित हैं। इन काष्ठा एवं माथुर संघ का सम्बन्ध उत्तर भारत से रहा है। यापनीय संघ___ यह संघ दक्षिण भारत की अपनी देन है। इस संघ के साधु एक ओर दिगम्बर साधुओं के समान उग्र-चर्या के रूप में नग्न रहते थे, मयूर पिच्छि रखते थे तथा पाणितल भोजी थे एवं नग्न प्रतिमाएं पूजते थे और वन्दना करने वालों को धर्मलाभ देते थे, तो दूसरी तरफ सैद्धान्तिक मान्यता में श्वेताम्बरों के समान स्त्री मुक्ति, केवली कवलाहार और सग्रन्थावस्था भी मानते थे। वे प्राचीन जैनागम ग्रन्थों का पठन-पाठन करते थे, पर उनके आगम शायद श्वेताम्बरीय जैनागमों से पाठभेद को लिए कुछ भिन्न थे। सम्भवतः यह श्वेताम्बर-दिगम्बर के मध्य की श्रृंखला थी। इस संघ की स्थापना दर्शनसार के कर्ता देवसेन सूरि के कथनानुसार वि.सं. 205 में "श्री कलश" नाम के श्वेताम्बर साधु ने की थी। कर्नाटक प्रदेश के शिलालेखों में यापनीयों के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है, अन्य प्रदेशों के संग्रहों में उसका अभाव है। अतः कर्नाटक प्रदेश में जन्म लेकर इस संघ ने धीरे-धीरे अपनी शक्ति को बढाया तथा पाँचवी सदी से 15 सदी तक उसने कर्नाटक के अनेक प्रदेशों में राजकीय तथा जनता का
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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