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________________ 78 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा (1) संघ नविलूर संघ, मयूर संघ, किचूर संघ, कोशलनूर संघ, गनेश्वर संघ, गोणसंघ, श्री संघ, सिंह संघ, परलूर संघ, (2) अन्वय कोण्डकुन्दान्वय, श्रीपुरान्वय, कित्तुरान्वय, चन्द्रकवाटान्वय, चित्रकूटान्वय, तालकोलान्वय, लंवकंचुकान्वय, गोलासटकान्वय, गोलापूर्वान्वय, (3) गण___ बलात्कार गण, सूरस्थगण, कालोग्र गण, उदार गण, योगीरय गण, पुलागवृक्ष, मूलगण, पंकुरगण, देशीगण, सिंगगण, सेनगण, काणूरगण, एरेगित्तूर गण। (4) गच्छ चित्रकूट, होत्तगे, तगरिक, होगरि, परिजात, मेषपाषण, तित्रिणीक, सरस्वती, पुस्तक, वक्रगच्छ, पोगरि, बाग्गच्छ, पुलिकल् गच्छ आदि बलि___ इनसोगे यापनसोगे, इंगुलेश्वर एवं वाणद बलि आदि उपर्युक्त संघ, अन्वय, गण, गच्छ, एवं बलि दक्षिण भारत से अधिक सम्बन्धित हैं, उत्तर भारत से कम, तथा इनके नामकरण भी दक्षिण भारतीय संस्कृति से ही पाये जाते हैं। सम्भवतः दक्षिण भारत में भद्रबाहु के चले जाने तथा वहाँ जैनों का पर्याप्त राजकीय संरक्षण, एवं जैनों की राज्यहित में महत्वपूर्ण भूमिका एवं स्थान होने के कारण श्रमणों को भी वहाँ समुचित वातावरण मिला। अतः अधिकांशतः सभी प्रधान जैन आचार्य वहीं रहे। सभी प्रमुख गण-गच्छ वहाँ के नामकरण पर रहे। कुछ अन्वय जैसे लंवकंचुकान्वय, गोलाराटकान्वय गोलापूर्वान्वय आदि उत्तर भारतीय हैं जो आगरा, लखनऊ, इटावा, ग्वालियर, महोवा आदि क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं, और शायद दिगम्बर जैन जाति के लमेंचु, गोलापूर्व तथा गोलालारे आदि जातियों के रूप में है, जो आज इसी क्षेत्र में पायी जाती हैं-शायद इस तरफ इंगित करती है। परन्तु ये अन्वय प्राचीनतम एवं प्रसिद्ध नहीं रहे हैं। नन्दिसंघ नन्दि संघ प्राचीनतम लगता है। इसकी एक प्राकृत पट्टावली भी प्राप्त है। ये कठोर तपस्वी हुआ करते थे। यापनीय और द्रविड़ मूल-संघ एकार्थक हो गये। नन्दि संघ का नाम "नन्दि" नामान्त श्रमणों से हुआ प्रतीत होता है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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