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________________ जैन श्रमण : स्वस्प और समीक्षा था। जैसा कि पूर्व में ही विभिन्न दृष्टिकोणों से भी सिद्ध किया जा चुका ही है। यह दिगम्बरत्व वीर निर्वाण संवत् 609 के पश्चात् नवीन उत्पत्ति नहीं है। पाणिपात्री, वस्त्ररहित-नग्न उत्कृष्ट-जिनकल्पी श्रमण भगवान ऋषभदेव के समय से ही होते आए हैं, ऐसा श्वेताम्बरीय साहित्य भी स्वीकृत करते आए हैं। तदनुसार यह सिद्ध है कि जब से जैनधर्म का उदयकाल है, नग्न दिगम्बर श्रमण तब से ही होते आए हैं। कतिपय श्वेताम्बरीय टीकाकार (किरणावली टीकाकार आदि) तो समस्त तीर्थंकरों की साधु अवस्था को नग्न दिगम्बर ही मानते हैं। द्वितीय विचारणीय यह है कि रथवीरपुर और उसमें रहने वाला शिवभूति कतई ऐतिहासिक पुरुष नहीं है। किसी भी दिगम्बर शास्त्र में उसका उल्लेख भी कतई नहीं हुआ है। जबकि जिस व्यक्ति से एक बड़े सम्प्रदाय की उत्पत्ति मानी जाए, और उसको साहित्य/शिलालेख आदि किसी में भी स्थान न मिले यह बिल्कुल असंभव है। वस्तुतः तथ्य यह है कि शिवभूति के साथ दिगम्बर मत की उत्पत्ति की सम्भावना एक कपोल-कल्पना मात्र है। यदि इस कल्पना को सत्य भी माना जाए तो भी दिगम्बर मत की उत्पत्ति वीर निर्वाण सं. 609 में न होकर एक कोड़ा-कोड़ी सागर वर्ष पूर्व तीर्थंकर ऋषभदेव के समय से ही सिद्ध होती है, तथा कथा में यह कहा गया "उपयुक्त संहनन न होने के कारण पाला नहीं जा सकता है, यह सभी मनुष्यों के संदर्भ में कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि नग्नता के लिए कोई विशेष संहनन की आवश्यकता नहीं, वह तो सामान्य शक्ति वालों के भी संभव है, यह तो मात्र समुचित विवेक एवं वैराग्य की अपेक्षा रखती है और फिर इस नग्न वेष को निन्हववाद और नवीन कैसे कहा जा सकता है ? अब हम अष्टम निन्हव में प्रचलित कथानक पर भी सूक्ष्मविचार करें। वहाँ पर कहा गया है कि "शिवभूति को अपनी माता की फटकार पर वैराग्य हो गया था। वह रात्रि के समय ही उपाश्रय में स्थित श्रमणों के पास पहुँचा और दीक्षा की प्रार्थना की। प्रथमतः आचार्य ने मना किया जब शिवभूति स्वयं केशलोच करने लगा तो फिर आचार्य ने दीक्षा दे दी। कालातंर में राजा के द्वारा दिये गये रत्न कंवल पर उसकी आसक्ति हो गयी, तो आचार्य ने उस रत्ल-कंवल को त्यागने का उपदेश करते हुए, रत्नकंवल के टुकड़े करके रजोहरण बना दिया। और एक दिन जिनकल्प के स्वरूप वर्णन के प्रसंग में वह नग्न दिगम्बर हो गया। यहाँ प्रथम तो जैन श्रमण रात्रि में बोलते नहीं हैं, अतः आचार्य ने शिवभूति के साथ वचनालाप कैसे कर लिया? जब पहले दीक्षा के लिए मना ही कर दिया तो फिर तत्काल दीक्षा कैसे दी, और सत्यमहाव्रत कैसे टिका रहा ?
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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