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________________ जैन श्रमण : स्वरप और समीक्षा गर्भिणी का गर्भपात हो गया। इस घटना के मूल कारण को दूर करने के लिए श्रावकों ने श्रमणों को अर्द्धफलक धारण करने के लिए निवेदन किया। सुभिक्ष हो जाने पर रामिल्ल, स्थविर, स्थूलभद्राचार्य ने तो मुनिव्रत धारण कर लिया, पर जिन्हें वह अनुकूल नहीं था। उन्होंने जिनकल्प के स्थान पर अर्द्धफलक सम्प्रदाय की स्थापना कर ली, और ऐसा सम्भव भी हो सकता है क्योंकि 12 वर्ष के ऐसे दीर्घकालीन जीवन-यापन करने में उनकी मनोवृत्ति कमजोर हो गयी हो, अतः अर्द्धफलक को स्वीकृत करने के लिए उनकी मानसिकता तैयार हो गयी होगी, चूंकि लोगों ने नग्न रहने के लिए जोर डाला होगा। अतः ऐसी विषम परिस्थिति में एक पृथक सम्प्रदाय की स्थापना उनके लिए आवश्यक थी। उत्तरकाल में इसी अर्द्धफलक सम्प्रदाय का विकास रूप श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति थी। देवसेन के दर्शनसार (वि.सं. 999) में भी इस सम्बन्धी कथा मिलती है। विक्रमाधिपति की मृत्यु के 136 वर्ष बाद सौराष्ट्र देश के वलभीपुर में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुयी। इस संघ की उत्पत्ति में मूल कारण भद्रबाहु गणि के आचार्य शांति के शिष्य जिनचन्द्र नामक एक शिथिलाचारी साधु थे, उसने स्त्री मोक्ष, कवलाहार, सवस्त्रमुक्ति, महावीर का गर्भपरिवर्तन, आदि जैसे मत स्थापित किये थे।115 एक और अन्य देवसेन ने भावसंग्रह में कुछ इससे पृथक बतलाते हुए कहा कि शान्ति नामक आचार्य वलभी नगर शिष्यों सहित पहुँचे, तो वहाँ अकाल का प्रकोप देखा। फलतः साधु वर्ग यथेच्छ भोजनादि करने लगे। दुष्काल समाप्त हो जाने पर शान्ति नामक आचार्य ने इनसे इस वृत्ति को छोड़ने के लिए कहा, पर उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। आचार्य ने बहुत समझाया भी, पर उनकी बात पर शिष्य को क्रोध आया और उसने विशाल दण्ड से शिर पर प्रहार करके उन्हें स्वर्ग लोक पहुँचाया, और स्वयं संघ का नेता बन गया, उसी से सवस्त्र मुक्ति का उपदेश और श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति हुयी।116 भट्टारक रत्ननन्दि कृत-भद्रबाहु चरित्र (तृतीय परिच्छेद में) में कुछ परिवर्तन के साथ इसी घटना का श्वेताम्बर मत उत्पत्ति का इसी प्रकार से वर्णन है। दिगम्बर परम्परा के उपर्युक्त कथानकों से इतना निष्कर्ष फलित होता है कि भद्रबाहु प्रथम की परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय से और स्थूलभद्र की परम्परा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुड़ी हुयी है। यह श्वेताम्बर परम्परा अर्द्धफलक संघ का ही विकसित रूप है। अर्द्रफलक सम्प्रदाय की उत्पत्ति वि.पू. 330 में हुयी और वि.सं. 136 में वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के रूप में प्रकाश में आया। "अर्द्धफलक सम्प्रदाय" का यह रूप मथुरा टीले से प्राप्त शिलापट्ट में अंकित जैन साधु की प्रतिकृति में परिलक्षित होता है। वहाँ पर वह साधु "कण्ह" बाएं हाथ से वस्त्र खण्ड के मध्य भाग को पकड़कर नग्नता को छिपाने का प्रयत्न कर रहा है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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