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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
श्री भद्रबाहु स्वामियं पादपं जिनचन्द्र प्रणमतां" ।
भद्रबाहु स्वामी और सम्राट चन्द्रगुप्त के सन्दर्भ में जब हम उपर्युक्त श्रवणवेलगोल के शिलालेखों का आलोकन करते हैं तो यह निश्चित मानना पड़ता है कि भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे और चन्द्रगुप्त सम्राट थे जो जैन मान्यतानुसार अन्तिम दीक्षित सम्राट हैं। 1
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इस प्रसंग में एक ऐतिहासिक तथ्य है कि इतिहास में इनके राज्याभिषेक आदि का तो उल्लेख मिलता है, परन्तु इनकी मृत्यु कैसे हुयी एवं कहाँ पर हुयी इस विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। अतः ऐसी स्थिति में जैन मान्यता ही मान्य है कि जब सम्राट चन्द्रगुप्त की राजधानी उज्जैन में श्रुतकेवली भद्रबाहु आए और सम्राट ने रात्रिकालीन स्वप्नों का फल जानने की जिज्ञासा प्रगट की, उस स्वप्न फल के वैराग्य में सम्राट दीक्षित होकर दक्षिण चले गये चूंकि सम्राट दीक्षित हो चुके थे और तुरन्त 12 वर्ष का अकाल पड़ा था। अतः ऐतिहासिक उल्लेख प्राप्त नहीं है ।
उपर्युक्त शिलालेखों के प्रसंग में प्रथम शिलालेख की इन पंक्तियों के आधार "भद्रबाहु स्वामिना उज्जयन्यामष्टांग- महानिमित्त - तत्वज्ञेन त्रैकालय - दर्शिना निमित्तेन -
इस पर कुछ विद्वान् यह कल्पना करते हैं कि उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाले भद्रबाहु श्रुतकेवली नहीं अपितु अष्टांग ज्ञाता निमित्तज्ञ द्वितीय भद्रबाहु थे । जो श्रुतकेवली भद्रबाहु के पश्चातवर्ती हैं। परन्तु यह मत कल्पनामात्र है। उद्धरण में " अष्टांग महानिमित्त " ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित है । तिलोयपण्णति में इन अष्टांगों का विस्तृत वर्णन है । अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, चिन्ह और स्वप्न ये आठ भेद निमित्तों के होते हैं। 13 और इन अष्टागों को महानिमित्त भी कहते हैं । ' 14
उज्जयिनी में जब अकाल पड़ने को हुआ, तो उसकी पूर्व सूचना में प्रकृति के अष्टांग महानिमित्त रूप थे। जैसे जब भद्रबाहु के आहारार्थ गमनकाल में योग्य आहार - विधि मिलने पर गृह में प्रवेश किया तो वहाँ पर पालने में स्थित शिशु "जाओ - जाओ " की ध्वनि निकालने लगा- ऐसे लक्षण देखने पर और सम्राट चन्द्रगुप्त के देखे स्वप्नों का फल विचारने पर निर्णय करके उन्होंने 12 वर्ष का अकाल जाना। इसके अतिरिक्त भी सामान्यतः आचार्य को भविष्य का ज्ञाता ( अनुभाता ) होना अपेक्षित होता है ताकि वह अपने संघ पर आने वाले उपसर्गों से बच सके। इस सन्दर्भ में यदि हम विन्ध्यागिरि पर्वत के शिलालेखों में अखण्ड बागिलु के पूर्व की ओर चट्टान पर जो कि सम्भवतः शक सं.
1099 का है जिसमें आचार्यों के चारित्रगत वैशिष्टय के साथ ज्ञानात्मक वैशिष्टय में "द्वादशांग श्रुतप्रविधानसुधाकरकं", तथा इसके पूर्व "अष्टांगनिमित्तकुशलकं" भी विशेषण दिया है, जबकि द्वादशांग में ज्योतिष गर्भित है । सम्भवतः पृथक उल्लेख करने का आशय "अष्टांग निमित्तों की कुशलता पर विशेष जोर डालना रहा होगा। अतः शिलालेख नं. 1