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________________ संघ और सम्प्रदाय 63 श्रवणवेलगोल का पार्श्वनाथ वस्ति के दक्षिण की ओर के शिलालेख नं. 1, लगभग शक सं. 522 'जितं भगवता श्रीमद्धर्म तीर्थ विधायिना। वर्द्धमानेन सम्प्राप्तसिद्धि सौख्यामृतात्मना ।। 1 ।। लोकालोक व्याधारवस्तु ---------- प्रवादि मत शासनम् ।।4।। ‘अथ खलु सकल जगदुदय करणोदितातिशयगुणास्पदीभूत परमजिनशासन सरस्समभिवति भव्यजनकमलविकशनविर्तिमिर गुणकिरणसहस्रमहोतिम महावीरसवितरि परिनिवृते भगवत्परमर्षि गौतमगणधर साक्षाच्छिष्यलोहार्यजम्बु-विष्णुदेव-अपराजित गोवर्द्धन,भद्रबाहु-प्रोष्ठिल-क्षत्रियकार्य जयनामसिद्धार्थ धृतषेण बुद्धिलादि गुरूपरम्परीणक्रमाभ्यागत महापुरुषसन्तति समवधोतान्वयभद्रबाहु स्वामिना उज्जयिन्यां अष्टांग महानिमित्त तत्वज्ञेन त्रैकाल्यदर्शिना निमित्तेन द्वादशसम्वत्सर-कालवैषभ्यमुपलम्य कथिते सर्वसंग उत्तरपथात् दक्षिणापंथ प्रस्थितः आरेणैव जनपद-अनेक ग्रामशत संख्यमुदितजनधनकनकशस्य गोमहिषाजाविकल समाकीर्णम् प्राप्तवान् । अतः आचार्यः प्रभाचन्द्रेणामावनित लललाम भूतेयास्मिन् कटवप्रनामकोपलक्षिते विविध तस्वर कुसुमदलावलिविकलनशवलविपुलसजल जदनि वहनी लोपलतले वराहदीपिव्याघ्रखंतरक्षु, व्यालमृगकुलोपचितोपत्यका कन्दरदरीमहा गुहा गहनभोगवतिसमुतुंगशृंग शिखारणि जीवितशेषम् अल्पतरकालं अवबुध्याध्वनः सुचकितः तपःसमाधिम् आराधयितुम् आपृच्छ्य निरवशेषेण संघम् विसृज्य शिष्येणेकेन पृथुलकास्तीर्णतलासु शिलासु शीतलासु स्वदेहम् सन्नयस्याराधितवान् क्रमेण सप्तशतं ऋषिणाम् आराधितम् इति। जयतु जिनशासनं इति। गद्यार्थ समस्त जगत का उदय करने वाले, अनुपम गुणों से विभूषित, जैन शासन को उन्नत करने वाले, भव्य जन समुदाय को विकसित करने वाले, अज्ञान अन्धकार को दूर करने वाले श्रीमहावीर प्रभु रूपी सूर्य के मुक्ति प्राप्त करने पर भगवान के परमऋषि गौतम गणधर के साक्षात् शिष्य सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु. प्रोष्ठिल, क्षत्रियाचार्य, जयनाम सिद्धार्थ, धूतषेण, बुद्धिल, आदि गुरुपरम्परा से क्रम से चली आयी महापुरुषों की सन्तति को प्रकाशित करने वाली परम्परा में भद्रबाहु स्वामी के द्वारा उज्जयिनी में अष्टांग महानिमित से तत्वज्ञ त्रिकालदर्शी निमित से 12 वर्षीय काल विषमता ( अकाल, दुर्भिक्ष ) को जानकर अपने संघ को कहकर ससंघ उत्तरपथ से दक्षिण पथ की ओर चल दिये। ससंघ भद्रबाहु धन, जन, धान्य, सुवर्ण, गाय भैंस आदि पदार्थों से भरे हुए अनेक ग्राम नगरों में होते हुए पृथ्वी तल के आभूषणरूप इस कटवप्र नामक पर्वत पर आए। मुनि प्रभाचन्द ( चन्द्रगुप्त ) भी साथ में थे। अनेक प्रकार के वृक्ष, फूल, फल से शोभायमान, सजल बादल समूहों से सुशोभित सिंह, बाघ, सुअर, रीछ, अजगर, हरिण आदि जंगली जानवरों से भरे हुए, गहन गुफाओं और उन्नत शिखरों से विराजमान इस कटवप्र पर्वत पर
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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