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________________ 60 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा अर्थात् मैं वस्त्र रहित था, मैंने आहार अपने हाथों में किया। न लाया हुआ भोजन किया, न अपने उद्देश्य से बना हुआ लिया, न बर्तन से खाया, न थाली में खाया --- । मैने मस्तक दाढ़ी व मूंछों की केशलौंच की क्रिया को चालू रखा। मैं एक बूंद पानी पर भी दयालु रहता था। क्षुद्र जीव की हिंसा भी मेरे द्वारा न हो, ऐसा मैं सावधान था। "सो ततो सो सीनों एको मिसन के बने। नग्गो न च आगीं असीनो एकनापसुत्तोमुनीति।। अर्थात् इस तरह कभी गर्मी, कभी सर्दी, को सहता हुआ भयानक वन में नग्न रहता था। मै आग से नहीं तपता था। मुनि अवस्था में ध्यान में लीन रहता था। बुद्ध कुछ दिनों तक इस प्रकार जैन साधु का आचरण करते रहे फिर जब उनको यह चर्या कठिन प्रतीत हुयी तो उन्होंने जैन साधु का रूप त्याग कर गेरुआ वस्त्र पहिन लिये और अपनी इच्छा अनुसार तप करने लगे।109 उपर्युक्त अंश यह तो स्पष्ट करता है कि पार्श्वनाथ ने श्रमण के लिए अचेलकता का उपदेश दिया था जिसके अनुयायी बुद्ध बने थे, यदि अचेलकता का उपदेश नहीं देते तो बुद्ध की इस प्रकार की दीक्षा प्रसंग का उल्लेख ही नहीं होता, तथा यदि अचेलकता के साथ सचेलक स्वरूप का उपदेश दिया होता तो गौतम बुद्ध जैसों को नग्नता के रूप में कठिन वेष को त्याग नया भेष क्यों अपनाते? वे भी पार्श्वनाथ के सचेलक व्यवस्था में ही दीक्षित होते। अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि पार्श्वनाथ ने सचेलक स्वरूप का उपदेश नहीं दिया था। और यह कहना कि महावीर ने पार्श्वनाथ के शिष्य के कथन एवं प्रवलि मात्र से ही सचेलक स्वरूप को मान्यता दी तो फिर उन्होंने पार्श्व के ही शिष्य जो सदैव एक जगह रहन में दोष नहीं मानते थे, उस तथ्य को पार्श्व के नाम पर क्यों नहीं स्वीकारा उसमें परिवर्तन क्यों किया, क्या यह परिवर्तन भाव महावीर को पार्श्वनाथ का विरोधी नहीं कहला सकता है। इस सन्दर्भ में एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि क्या लोगों की क्षमता के आधार पर श्रमण धर्म का स्दरूप है? या श्रमण धर्म धारण की योग्यता वाला श्रमण धर्म अंगीकार करता है, यदि लोगों की धारण करने की क्षमता के आधार पर श्रमण स्वरूप का निर्धारण है तो फिर उस स्वरूप का निर्धारण ही कभी नहीं किया जा सकता है। पुनश्च, महावीर ने ऐसी गलती क्यों की कि उन्होंने शिथिलाचारी पार्श्व-अनुयायी को अपने धर्म में दीक्षित करने के उद्देश्य से सचेलकता का भी उपदेश दे डाला। शायद सर्वज्ञ महावीर ऐसी गलती कभी नहीं कर सकते हैं, वस्तुतः अपनी मान्यताओं को महावीर के साथ जोड़ने की एक शैली श्वेताम्बरीय आगमों ने अपनायी, जो कि काफी पश्चात् रची गयी थी। इस प्रकार के संवादों के रचने का एक उद्देश्य यह था कि इस प्रकार पश्चातवर्ती श्रमणों/श्रावकों को उन तथ्यों की प्रामाणिकता सी लगती, जैसा कि सामान्य जन भ्रम किये बैठे हैं। अतः दार्शनिक दृष्टिकोण से भी महावीर का इस प्रकार का चिन्तन होना तर्क संगत नहीं लगता
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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