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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
आता है कि दिगम्बर मत निन्हववाद का परिणाम है, एवं पश्चातवर्ती है। इस काल में जिनकल्पीय स्वरूप जिसको कि वे आचेलक्य भावों से लेते हैं, होता ही नहीं है, क्योंकि वे इस काल में सचेलक स्वरूप की ही घोषणा करते हैं। यद्यपि उनके यहाँ आचेलक्य भी स्वीकारा है। दिगम्बर परम्परा में आचेलक्य को ही स्वीकारा है। यही इन दोनों सम्प्रदायों के श्रमण स्वरूप विभाजन का कारण है।
जैनधर्म के 24 तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव जिनका कि दूसरा नाम आदिनाथ भी है, एवं जो ऐतिहासिक पुरुष समझे जाते हैं- इनको जैन सम्प्रदाय के सभी लोग श्रमणावस्था में नग्न ही स्वीकारते हैं। जिन पर विस्तत विचार हम पर्व में कर ही आये हैं। अतः उनके सम्बन्ध में यह तथ्य निर्विवाद है कि उन्होंने अचेलक अर्थात् नग्नता का ही उपदेश दिया था। सचेलक का उपदेश श्रमण के स्वरूप के लिए कथमपि नहीं दिया था। तत्पश्चात् शेष अजितनाथ से लेकर नमिनाथ तक का सार्वजनिक इतिहास ही अप्राप्य है। नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर ऐतिहासिक महापुरुष रहे हैं, जिनके श्रमण स्वरूप सम्बन्धित उपदेशों की जानकारी प्राप्त है।
श्वेताम्बर मत के अनुसार महावीर ने नग्नता को तो स्वीकारा ही था और उसी का श्रेष्ठ समझा भी था, परन्तु जब उनके शासन में पार्श्वनाथ अनुयायी शिष्यों ने आना शुरू किया और उन्होंने यह प्रश्न किया कि पार्श्वनाथ ने तो सवस्त्र मुक्ति का उपदेश दिया आप निर्वस्त्र मुक्ति का उपदेश देते हैं ? तो महावीर ने अपनी पूर्ववर्ती तीर्थकर के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए उस स्वरूप को भी स्वीकार कर लिया परन्तु स्वयं निर्वस्त्र ही रहे। इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध मुनि श्री नथमल जी के विचार देखें -
"इस तथ्य की स्वीकृति यथार्थ के बहुत निकट है कि भगवान ( महावीर) का झुकाव विवस्त्र (नग्न) रहने की ओर था। भगवान पार्श्व के शिष्य विवस्त्र रहने में अक्षम थे। इस स्थिति में भगवान ने दोनों विचारों का सामंजस्य कर अचेल और सचेल दोनों रूपों को मान्यता दी। इस मान्यता के कारण भगवान पार्श्व के संघ का बहुत बड़ा भाग भगवान महावीर के शासन में सम्मिलित हो गया।106 इसके अलावा पार्श्वनाथ के शिष्यों में "विहार" से सम्बन्धित भी विभिन्नता थी उनके शिष्यों के लिए परिव्रजन की कोई मर्यादा नहीं थी। वे एक गाँव में चाहे जितने समय तक रह सकते थे। भगवान महावीर ने इसमें परिवर्तन कर नवकल्पी विहार की व्यवस्था की। उसके अनुसार मुनि वर्षावास में एक गाँव में चार माह रह सकता है। शेष आठ महीने में एक गाँव में एक मास से अधिक नहीं रह
सकता।"107
महावीर की नग्नता के साथ यह कहा जाता है कि उनके नग्न होने पर भी देवदूष्य उनके कंधों पर पड़ा रहता था। इससे श्वेताम्बर सम्प्रदाय इस मत से अपनी सचेलक