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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा कलिंग देश को भी उसने अपने अधीन कर लिया था। कलिंग विजय में उसने वहाँ से समुद्रतटवर्ती देश जीत लिये थे तथा उत्तर में हिमालय प्रदेश और काश्मीर एवं अवन्ती और कलिंग देश को भी उसने अपने अधीन कर लिया था। कलिंग विजय में वह वहाँ से "कलिंगजिन" नामक एक प्राचीन प्रतिमा लाया था और उसे सादर अपनी राजधानी पाटलीपुत्र में स्थापित किया था। अन्तिम नन्द का मंत्री "राक्षस" नीति निपुण व्यक्ति था। "मुद्राराक्षस" नाटक में उसे जीवसिद्धि नामक क्षपणक अर्थात् जैन श्रमण के प्रति विनय प्रदर्शित करते दिखलाया है। (2) मौर्य साम्राज्य में जैन श्रमण नन्द राजाओं के पश्चात् मगध का राजछत्र चन्द्रगुप्त नाम के एक क्षत्रिय राजपुत्र को मिला था। उसने समस्त भारत पर अधिकार करते हुए "मौर्यी" नामक राजवंश की स्थापना की थी। जैन शास्त्र इस राजा को दिगम्बर मुनि श्रमणपति श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य बतलाते हैं। यूनानी राजदूत मेगास्थनीज भी चन्द्रगुप्त को श्रमण भक्त प्रकट करता है।88 सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र को राज्य देकर भद्रबाहु स्वामी के निकट जिनदीक्षा धारण की थी और वे अन्य दिगम्बर श्रमणों के साथ दक्षिण भारत को चले गये थे।89 श्रवणबेलगोल का कटवप्र नामक पर्वत उन्हीं के कारण "चन्द्रगिरि" नाम से प्रसिद्ध हो गया है, क्योंकि उस पर्वत पर चन्द्रगुप्त ने तपश्चरण किया था और वहीं उनका समाधिमरण हुआ था। सम्राट अशोक ने अपने एक स्तम्भ लेख में निर्ग्रन्थ श्रमणों के संरक्षण का आदेश प्रसारित किया था।91 इस प्रकार मौर्य साम्राज्य में भी जैन श्रमणों की काफी प्रतिष्ठा थी। (3) सिकन्दर महान और जैन श्रमण जिस समय अन्तिम नन्दराजा भारत में राज्य कर रहे थे और चन्द्रगुप्त मौर्य अपने राज्य की नींव डालने में लगे हुए थे। उस समय भारत के पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त पर यूनान का प्रतापी वीर सिकन्दर अपना सिक्का जमा रहा था। जब वह तक्षशिला पर पहुँचा तो वहाँ उसने दिगम्बर मुनियों की बहुत प्रशंसा सुनी। 2 सिकन्दर ने अपने एक दूत को, जिसका नाम अंशकृतस था, उनके पास भेजा। उसने देखा, तक्षशिला के पास उद्यान में बहुत से नंगे मुनि तपस्या कर रहे हैं। उनमें से कल्याण मुनि से उसकी बातचीत होती रही थी, मुनि कल्याण ने अंशकृतस से कहा कि यदि तुम हमारे तप का रहस्य समझना चाहते हो तो हमारी तरह दिगम्बर मुनि हो जाओ। अंशकृतस के लिए ऐसा करना असंभव था। उसने सिकन्दर से जाकर इन मुनियों के ज्ञान और चर्या की प्रशंसनीय बातें कही। सिकन्दर उनसे बहुत प्रभावित हुआ और उसने चाहा कि इन ज्ञान ध्यान-तपोरक्त का प्रकाश मेरे देश में भी पहुंचे। उसकी इस शुभ कामना को मुनि कल्याण ने पूर्ण किया था।93
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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