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________________ जैन श्रमण : और वातरशना सन् 1623 में पिटल डेल्ला वॉल्ला नामक एक यात्री आया था उसने अहमदाबाद में साबरमती के किनारे और शिवालों में अनेक नागा साधु देखे थे जिनकी लोग बहुत विनय करतें थे।55 इस वर्तमान काल में भी प्रयाग, हरिद्वार आदि में आयोजित कुम्भ के मेले के अवसर पर हजारों नागा सन्यासी वहाँ देखने को मिल सकते हैं-वे पंक्तिबद्ध शहर में नग्न ही निकलते हैं।56 ____ अतः सारांश रूप में हिन्दू शास्त्रों एवं उनकी संस्कृति में दिगम्बरत्व का महत्व स्पष्ट होता है। अतः दिगम्बरत्व हिन्दुओं के लिए भी पूज्य एवं श्रद्धास्पद वृत्ति है। जैन श्रमणः और वातरशना वातः एवं अशना यस्य सः वातरशना अर्थात् हवाएँ ही जिसके वस्त्र हैं वह वातरशना कहलाता है। वैदिक परम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थों में इसका उल्लेख. बहुधा मिलता है। जिसका कि सम्बन्ध वैदिक परम्परा से ही जोड़ लिया जाता है, परन्तु यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो इस वातरशना का सम्बन्ध जैन श्रमण परम्परा से योजित करना ज्यादा युक्ति-संगत है। भागवत पुराण में कहा है कि वहिर्षि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान परमर्षिभिः प्रसादितो नाभः प्रियचिकिर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्याधर्मान् दर्शयितुकामोवातरशनानां श्रमणानाम् श्रृषीणाम् ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार"57 अर्थात् यज्ञ में परमश्रृषियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर, हे विष्णुदत्त, पारीक्षित, स्वयं श्री भगवान (विष्ण) महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया। उपर्युक्त अवतरण में विष्णु का ऋषभ अवतार के रूप में जो हेतु भागवत पुराण में बतलाया गया है उससे वातरशना धर्म की परम्परा भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से निःसन्देह निराबाध रूप से जुड़ जाती है। भागवत पुराण में यह भी कहा गया कि "अयमवतारो रजसोपप्लुत-कैवल्योपशिक्षणार्थः"58
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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