SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा सम्राट ऋषभदेव के द्वारा गृहीत यह चर्या, रागादि विभाव को जीतने वाली, यथाजात श्रमण वृत्ति रुप में परिणत महामुनि ऋषभदेव की यह जीवन साधना उनकी अपनी कोई एकदम नवीन नहीं थी, क्योंकि प्रकृति के इस निष्कलंक रूप का उद्घाटन उनसे पूर्व भी अनेकों बार अवश्य हुआ होगा। अतः जैन शास्त्र तो इस कल्पकाल में ऐसी वृत्यात्मक धर्म के आदि प्रचारक के रूप में ही ऋषभदेव को स्वीकृत करते हैं न कि इस वृत्ति के निर्माता के रूप में मानते हैं। जैन श्रमण और हिन्दू धर्म : ___मनु नाभिराय के पुत्र एवं इस कल्पकाल में आद्य श्रमण संस्कृति के उद्घाटक के रूप में प्रसिद्ध "ऋषभदेव को हिन्दु शास्त्रों में विष्णु के आठवें अवतार के रूप में स्वीकृत किया गया है।33 वहाँ इन्हें दिगम्बरत्व का आदि प्रचारक के रूप में बतलाया गया है। भागवत् के अध्ययन उपरान्त विश्व विख्यात दार्शनिक सर राधाकृष्णन34 तथा भागवत् के भाषा भाष्यकार पं. ज्वाला प्रसाद जी मिश्र35 इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि भगवान ऋषभदेव आद्य जैन श्रमण थे। जैनाचार्य इन्हें "योगी कल्पतरू के रूप में स्मरण करते हैं।36 श्रीमद्भागवत् में इन्हीं ऋषभदेव का परमहंस-दिगम्बर धर्म के प्रतिपादक के रूप में निम्न वर्णन मिलता है। "एवमनुशास्यात्मजान् स्वयमनुशिष्टानपि लोकानुशासनार्थ महानुभावः परमसुहृद भगवान ऋषभोदेव उपशमशीलानामुपरतकर्मनाम् महामुनीनां भक्तिज्ञानवैराग्यलक्षणम् पारमहंस्य धर्ममुपशिक्ष्यमाणः स्वतनयशत् ज्येष्ठं परमभाववतं भगवज्जनपरायण भरतं धरणीपालनायाभिषिच्य स्वयं भवन एवोवारितं शरीरमात्र परिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णककेश आत्मन्यारो पिता ह्वनीयो ब्रह्मावर्तात प्रवव्राज। . अर्थात् इस प्रकार महायशस्वी और सबके सुहृद् ऋषभ भगवान ने यद्यपि उनके पुत्र सभी तरह से चतुर थे, परन्तु मनुष्यों को उपदेश देने के हेतु, प्रशान्त और कर्मबन्धन से रहित महामुनियों को भक्तिज्ञान और वैराग्य को दिखाने वाले परमहंस आश्रम की शिक्षा देने के हेतु, अपने सौ पुत्रों में ज्येष्ठ परमभागवत हरिभक्तों के सेवक भरत को पृथिवी पालन के हेतु, राज्याभिषेक कर तत्काल ही संसार को छोड़ दिया और आत्मा में होमाग्नि का आरोप कर केश खोलकर उन्मत्त की भाँति नग्न हो, केवल शरीर को संग लं, व्रहमावर्त से सन्यास धारण कर चल निकले।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy