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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा 323 कठिन परिश्रम की स्पष्ट झलक इस शोध-प्रबन्ध में विषय का प्रतिपादन सप्रमाण और अच्छा किया गया है। कठिन परिश्रम के बिना इस प्रकार का लेखन असम्भव होता है - यह एक लेखक ही जान पाता है, और इसकी स्पष्ट झलक इसमें है। इस हेतु आप बधाई के पात्र हैं। श्रमणाचार विषयक अध्ययन को आगे बढ़ाने वालों के प्रति मेरी आत्मीयता स्वाभाविक है । इसीलिए साहित्यिक अभिरुचि, जैनधर्म दर्शन के प्रसार की तीव्र भावना, निर्भीकता और उत्साह आदि के कारण आपके प्रति मेरे मन में गहन आत्मीयता के साथ यह अपेक्षा है कि आप सदा इसी तरह जैन साहित्य के अनेकों अछूते विषयों के लेखन / प्रकाशन में लगे रहें; ताकि जैनधर्म, संस्कृति, साहित्य और दर्शन के सही मूल्यांकन का मार्ग सभी को प्रशस्त हो सके। पुनः आपके प्रयास के प्रति अपनी शुभकामनाओं सहित डॉ. फूलचन्द जैन 'प्रेमी' अध्यक्ष - जैनदर्शन विभाग, सं. संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी अधिक प्रासंगिक व उपयोगी कृति "जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा" को पढ़ा, न केवल पढ़ा, अपितु उसे गम्भीरता पूर्वक देखा और विचारा भी । निस्सन्देह आपने जहाँ अत्यन्त निर्भीकतापूर्वक स्पष्टरीत्या सत्य को प्रस्तुत किया है, वहीं तथ्यों की प्रामाणिकता व विषय के प्रस्तुतीकरण में भी आपका प्रचुर श्रम व समर्पण स्पष्टतः परिलक्षित होता है। दो-दो बार पूरी कृति का आद्योपान्त अवलोकन व अध्ययन किया, जो कि प्रस्तुतीकरण व विषय की रुचिकरता का तो द्योतक है ही, साथ ही बांधकर रखपाने की क्षमता भी इसमें है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त आवश्यक और अपरिहार्य इस श्रेष्ठ कृति की निर्मिति आपके द्वारा सम्पन्न हुयी, इसके लिए आपका प्रयास स्फुटतया अभिनन्दनीय है । क्योंकि व्याधि जब भयंकरता को प्राप्त हो, तो उपयुक्त औषधि उतनी अधिक प्रासंगिक व उपयोगी हो जाती है। सुदीप जैन शास्त्री, एम. ए. (संस्कृत, प्राकृत ) गोल्डमेडलिस्ट, व्याख्याता - जैन दर्शन, केन्द्रीय विद्यापीठ, नयी दिल्ली एक अभिनन्दनीय कृति श्रमण परम्परा के अस्त-व्यस्त हो रहे आज के इस सन्धिकाल में डॉ. योगेशचन्द्र जी जैन 'जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा' जैसा शोध-प्रबन्ध लिखकर सम्पूर्ण श्रमण- श्रावक परम्परा के ऊपर बहुत ही उपकार किया है। भ्रष्ट हो रहा साधु समाज निर्मल होकर पहले जैसे आदर्श होवे और समाज को दिशाबोध करे, ऐसे उदात्त भाव से और धर्म प्रेम से इस कृति की रचना की है। लेखक ने अपनी कलम पर योग्य संयम रखकर भी सत्य को अत्यन्त स्पष्ट और निर्भय होकर व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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