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________________ श्रमणों का अवदान 299 लगभग सम्पूर्ण जैन साहित्य लोकोपकार की भावना से अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना और उसकी पुष्ट के मूल उद्देश्य को लेकर रचा गया है। इस प्रकार के साहित्य को धार्मिक, दार्शनिक, कर्म साहित्य, अध्यात्म, व्याकरण, पुराण, काव्य, कोष, वैद्यक, ज्योतिष आदि विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है। जिनका क्रमशः विवेचन प्रस्तुत है। धर्म आचार प्रधान है और आचार प्राधान्य साहित्य को धार्मिक साहित्य कहा गया है। श्रमण और श्रावक वर्ग के सन्मार्ग हेतु इस प्रकार के धार्मिक साहित्य को जैन श्रमणों के द्वारा काफी मात्रा में लिखा गया है जिसमें मूलाचार, समयसार, भगवती आराधना, पुरुषार्थसिद्धयुपाय रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि मुख्य हैं। दार्शनिक युग के सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्र ने सैद्धान्तिक एवं आगमिक परिभाषाओं और शब्दों को दार्शनिक रूप प्रदान किया है। वस्तु के स्वरूप को देखकर उसके विवेचनपरक साहित्य को दार्शनिक साहित्य कहा जा सकता है। न्याय की कसौटी पर कसा गया दर्शन, दार्शनिक साहित्य की कोटि में रखते हैं, तो प्रमाण, नय, आदि विवेचन परक साहित्य में कुन्दकुन्द का प्रवचनसार और इनके टीकाकार अमृतचन्द्र एवं जयसेन, तथा कुन्दकुन्द से विरासत प्राप्त आचार्य समन्तभद्र सिद्धसेन, पात्रकेसरी, अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, अनन्तवीर्य, आदि अनेकों श्रमणों ने जैन साहित्य के दार्शनिक एवं न्याय पक्ष को पल्लवित और पुष्पित किया है और प्रमाण, प्रमेय, नय, द्रव्यगुणपर्याय, आदि की महत्वपूर्ण व्याख्याएँ दी। कर्म सिद्धान्त का गुणधर और धरसेन ने सूत्ररूप में विवेचन किया है। पुष्पदन्त और भूतबलि ने "षदखण्डागम" के रूप में सूत्रों का अवतारकर-जीव स्थान, खुद्दाबन्ध, वेदना, वर्गणा, बन्ध समितविचय, और महाबन्ध इन छह खण्डों में सूत्रों का प्रणयन कर कर्म सिद्धान्त का विस्तारपूर्वक निरुपण किया। अनन्तर वीरसेनाचार्य और जिनसेनाचार्य ने "धवला" और "जयधवला" टीकाओं द्वारा उसकी विस्तृत व्याख्याएँ दी हैं। पौद्गलिक कर्म के कारण जीव में उत्पन्न होने वाले रागद्वेषादि भाव एवं कषाय आदि विकारों का विवेचन भी कर्म साहित्य में समाविष्ट है। श्रुतधराचार्यों ने कर्मसिद्धान्त के प्ररुपक साहित्य में प्रतिसमय होने वाले अच्छे-बुरे भावों के अनुसार तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र मन्द, मन्दतर और मन्दतम रूपों में कर्म की विपाक स्थिति का वर्णन किया है। क्योंकि संसारी आत्मा कर्म के उदय में चारित्र मोहवश सुख-दुःख का अनुभव करती है। कर्म और आत्मा के बन्धन का यह चक्र अनादिकाल से रहा है। अतः बन्ध का कारण मिथ्यात्व रूप रागादि वासनाओं का विनाश हेतु कर्म साहित्य सृजित किया है। इस प्रकार के साहित्य में प्रसंग-प्रसंग पर आध्यात्मवाद तत्त्व ज्ञान, आचार एवं अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण को भी नहीं छोड़ा है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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