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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा तदनन्तर वे समस्त चतुर्विध संघ से कहते हैं कि ज्ञान-दर्शन और चारित्रात्मक धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति न हो, अतः सब गुणों से युक्त जानकर इन्हें मैंने अपना उत्तराधिकारी बनाया है। अब यह तुम्हारा आचार्य है । आप इस गण का पालन करें। इतना कहकर वे अपने द्वारा स्वीकृत उस आचार्य को संघ के मध्य में विराजमान करके स्वयं अलग होकर बाल और वृद्ध मुनियों से युक्त उस गण से मन-वचन-काय पूर्वक क्षमा-याचना करते हैं। वे कहते हैं कि, दीर्घकाल तक साथ रहने से उत्पन्न हुए ममता - स्नेह द्वेषवश जो कटु और कठिन वचन कहे गये हों, उस सब के प्रति मैं क्षमा भाव रखता हूँ। समस्त संघ भी इसी क्षमा भावों से युक्त उनसे क्षमा भाव प्रगट करता है। 284 उत्तराधिकारी आचार्य को शिक्षा देने के बाद नये आचार्य को आर्शीवाद देते हैं, और कर्तव्य बोध कराते हुए कहते हैं कि- "उत्पत्ति स्थान में छोटी सी भी उत्तम नदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुयी समुद्र तक जाती है, उसी प्रकार तुम शील और गुणों में सदा वृद्धि को प्राप्त रहो। तुम विलाव के शब्द की तरह आचरण मत करना । कारण कि, विलाव का शब्द पहले जोर का होता है, फिर क्रम से मन्द हो जाता है । उसी प्रकार रत्नत्रय की भावना के पहले, बडे उत्साह से करके पश्चात् शनैः शनैः मन्द मत करना । और इस तरह अपना व संघ का विनाश मत करना । क्योंकि जो जलते हुए अपने घर को भी आलस्यवश बचाना नहीं चाहता, उस पर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? कि वह दूसरे के जलते हुए घर को बचा पाएगा? अतः ज्ञान दर्शन चारित्र के अतिचारों को दूर करना। मेरे अधीन बहुत मुनि हैं, अतः अपने आप में गणी होने का घमण्ड मत करना । तथा शिष्यों द्वारा आलोचित दोषों को अन्य के सामने उद्घाटित नहीं करना, सभी यतियों से भरे गण की अपनी आँख की तरह रक्षा करना । इस तरह अच्छे-बुरे, गुण-दोषों का विवेचन करके उसका पथ प्रशस्त करते हुए आशीर्वाद देते हैं । • उपाध्याय जो चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात् परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं, तथा मोक्ष के इच्छुक शीलधरों अर्थात् मुनियों को उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरों को उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। 12 अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं। वे संग्रह अनुग्रह आदि गणों को छोड़कर पहिले कहे गये आचार्य के समस्त गुणों के धारी होते हैं। 13 मूलाचार में उपाध्याय का स्वरूप इस तरह मिलता है "ग्यारह अंग चौदह पूर्व जो जिनदेव ने कहे हैं उनको पण्डित- जन स्वाध्याय कहते हैं। उस स्वाध्याय का उपदेश करते हैं, इसलिए वे उपाध्याय कहलाते हैं। 14 आचार्य अकलंकदेव कहते हैं कि, जिन व्रतशील भावनाशील महानुभाव के पास जाकर भव्यजन विनय-पूर्वक श्रुत का अध्ययन करते हैं वे उपाध्याय कहलाते हैं। 15 -
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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