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________________ 282 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा (घ) तपाचार - जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है-दहन करता है, वह तप है। यह बाह्य और अभ्यंतर रूप दो भेदों में है। इन दोनों के भी छह-छह के भेद से बारह भेद हो जाते हैं। (ड) वीर्याचार - अपने बल और वीर्य को न छिपाकर जो साधु यथोक्त आचरण में अपने को लगाता है, तप के प्रति उत्साहित रहता है, वह वीर्याचार है। इन पाँचों का पालन करना-कराना ही आचारवत्व है। 2. आधारवत्व - जिस श्रुतज्ञान रूपी सम्पत्ति की तुलना कोई भी नहीं कर सकता, उसको, अथवा नौ पूर्व, दशपूर्व, या चौदह पूर्व तक के श्रुतज्ञान को अथवा कल्प व्यवहार के धारण करने को आधारवत्व कहते हैं। 3. व्यवहार पटुता - व्यवहार का अर्थ यहाँ प्रायश्चित्त से है, वह पाँच प्रकार का है। इसकी कुशलता ही व्यवहार पटुता है। जिन्होंने अनेक बार प्रायश्चित्त देते हुए देखा है, स्वयं ग्रहण किया है, दूसरों को दिलवाया है, वही व्यवहार पटु है। 4. प्रकारकत्व - जो समाधिमरण कराने में या उसकी वैयावृत्य में कुशल है, उन्हें परिचारी अथवा प्रकारी कहते हैं, यह गुण प्रकारकत्व कहलाता है। 5. आयापायदर्शिता - ___ आलोचना करने के लिए उद्यत हुए क्षपक (समाधि-मरण करने वाला साधु) के गुण दोपों को प्रकाशित करने को आयापायदर्शिता अथवा गुणदोषप्रवक्तृता कहते हैं। 6. उत्पीलक - कोई साधु या क्षपक यदि दोषों को पूर्णतया नहीं निकालता है, तो उसके दोषों को युक्ति और बल से बाहर निकाल देना उत्पीलन गुण है। 7. अपरिसवण - शिष्य के गौप्य दोष को सुनकर जो प्रकट नहीं करते हैं उनके अपरिस्रवण गुण होता है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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