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________________ 238 जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा यहाँ भीम के कहने का तात्पर्य है कि छोटा पशु यदि कीचड़ में फँस जावे तो उसे निकाला भी जा सकता है; परन्तु यदि हथिनी (सामर्थ्यवान व्यक्तित्व) ही कीचड़ में फंस जावे, तो उसे कौन निकाल सकता है? इसी तरह आप जैसा महान् व्यक्तित्व की बुद्धि यदि विभ्रम में पड़ जावे, तो फिर उसे कौन पथ प्रदर्शित कर सकता है ? आचार्य पूज्यपाद तो इसीलिए साधु के तपोधन को सुरक्षित व संवर्धित करने के अभिप्राय से उसको एकान्त व जन्तुओं की पीड़ा से रहित स्थानों में शय्या व आसन लगाने को कहते हैं। आचार्य गुणभद्र तो नगर व ग्राम में ही बसकर रहने वाले श्रमणों पर अति खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं कि "जिस प्रकार सिंहादि के भय से मृगादि रात्रि के समय गाँव के निकट आ जाते हैं, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी वन को छोड़ गाँव के समीप रहने लगे हैं, यह खेद की बात है। यदि आज का ग्रहण किया गया तप कल स्त्रियों के कटाक्षरुप लुटेरों के द्वारा वैराग्य सम्पत्ति से रहित कर दिया जाये, तो इस तप की अपेक्षा गहस्थ जीवन ही कहीं श्रेष्ठ था। श्रमण के रहने योग्य स्थान तो शून्यघर, पर्वत की गुफा, वृक्ष का मूल, अकृत्रिम गृह, उद्यान गृह, श्मशान भूमि, गिरिशिखर, शिक्षागृह स्कूल आदि छोड़े हुए घर हैं।246 इसके अलावा शहर के बाहर के चैत्यालय में ठहरा जा सकता है, परन्तु शहर के मध्य तो बिल्कुल अनुचित ही है; जबकि आज का श्रमण शहर के मध्य ही रह रहा है, और जन सामान्य यही स्वरूप स्वीकार कर बैठा है। जो कि भ्रमपूर्ण सन्तुष्टि है। इसी कारण शिथिलाचार अपने पूर्ण यौवन पर हैं। इस सम्बन्ध में यह तर्क दिया जाता है कि, आज जंगलों में श्रमणों के अनुरुप अनुकूलता नहीं है। परन्तु यह विचार युक्ति- पूर्ण नहीं है। आज न तो भयानक जंगल ही रहे और न ही उनमें रहने वाले क्रूर पशु। अतः जीवनगत आपत्ति नहीं कही जा सकती है। द्वितीय, पूर्व के जंगलों में तथा शहर के बाहर साधुओं के लिए चारित्रिक खतरे भी हुआ करते थे। अधिकांशतः "जार" स्त्रियाँ अभिसार करने जंगल के मनोरम वातावरण में जाया करती थीं, और प्रायः वे साधुओं के चारित्रिक पक्ष पर भी आक्रमण किया करती थीं। जैसे द्रोपदी के पूर्व भव में आर्यिका के रूप में तपस्या के समय उनके सामने के वृक्ष तले स्थित एक जार पाँच पुरुषों में अनुरक्त थी; और जिसे देखकर द्रोपदी के जीव ने पाँच पति का निदान बाँधा था। परन्तु, कालान्तर में यह प्रवृत्ति जंगलों से हटकर, होटलों, शहरों के मध्य व धर्मशाला में सिमटी। तो भ्रष्ट साधुओं की तीव्र काम व लोकेपणा की चाह ने भी अपने साध्य के पास रहना प्रारम्भ किया। जैन श्रमण वसतिका के 46 दोष-उद्गम, उत्पादन एवं एषणा जन्य दोषों से बचते हुए एक ग्राम में एक रात और नगर में पाँच रात तक रहते हैं, वे साधु धैर्यवान, प्रासुक बिहारी हैं।247 परन्तु षड्थ्रतुओं में एक-एक मास रहने का भी विधान मिलता है। वर्षाकाल में आषाढ़ शुक्ल चौदस से कार्तिक कृष्ण पूर्णिमा तक एक स्थान में रहते हैं। प्रयोजनवश
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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