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________________ विहार चर्या 235 मिथ्यात्व की आराधना, अपने सम्यग्दर्शनादि गुणों का घात, संयम का घात, ये पाप स्थान अवश्य होते हैं। ऐसे गुरु कुल में रहना ठीक नहीं, जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रर्वतक, स्थविर, और गणधर ये पाँच मुनिराज संघ के आधारभूत न हो। जो श्रमण संघ को छोड़कर संघ रहित अकेला विहार करता है, और दिये उपदेश को ग्रहण नहीं करता है वह पाप श्रमण है। जो पहिले शिष्यपना न करके आचार्यपना करने को वेगवान है, वह पूर्वापर विवेक रहित ढोंढाचार्य है, जैसे अंकुश रहित मतवाला हाथी।234 आचार्य मल्लिषेण ने ऐसे श्रमण को सांड की उपाधि दी है।235 तो चामुण्डराय ने एकल बिहारी को मृग-चारित्र कहकर वहिष्कृत किया है।236 वस्तुतः "जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिंहवृत्ति रूप प्रवर्तता है, बहुत तपश्चरण आदि से संयुक्त है, बड़ा पदधारी है, परन्तु स्वच्छन्द प्रवर्तता है, वह पाप व मिथ्यात्व को ही प्राप्त होता है।237 आदिपुराण में तो पंचमकाल में एकलविहारी साधु की सत्ता का ही निषेध किया है।238 वस्तुतः इसका यह तात्पर्य है कि इस योग्य पुरुषार्थी जीवों का लगभग अभाव ही रहेगा। एकल विहार योग्य साधु का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि, जो द्वादश प्रकार का तप, बारह अंग चौदह पूर्व अथवा उस काल क्षेत्र के अनुरूप आगम का पारगामी, उत्कृष्ट शारीरिक शक्ति-युक्त, शरीर से भिन्न अपनी आत्मा में रति रूप एकत्व भावयुक्त, वज्रवृषभ आदि संहनन वाला, मनोबल संयुक्त इतना ही नहीं, अपितु दीक्षा से, आगम से बलवान, तपश्चर्या से वृद्ध, आचार सम्बन्धी सिद्धान्त में भी अक्षुण्ण, ऐसे अनुकूलचर्या में निपुण गुणविशिष्ट को एकल विहार की अनुमति दी गयी है। एकल विहार के सम्बन्ध में श्वेताम्बरीय आगम में भी लगभग ऐसा ही स्वरूप मिलता है। सूत्र कृतांग में एकाकी चर्या की योग्यता पर विचारते हुए कहा कि "एकाकी विचरण करने वाले साधु को कठोर साधना करनी पड़ती है, क्योंकि एकाकी विचरण साधना अंगीकार करने के पश्चात् थोडी सी भी स्थान की, आहार-पानी की असुविधा, सम्मान सत्कार में लोगों की अरुचि देखी कि, मन में रोष आ गया, अथवा वाणी में रोष, कठोरता या अपशब्द आ गये या किसी सूने घर में ठहर जाने पर भी वहाँ किसी प्रकार का देवी, मानुषी या पाशविक उपद्रव आ गया तो साधु की समाधि भंग हो जाएगी, मन में राग-द्वेष की उत्पत्ति होगी।239 दशाश्रुत स्कन्ध में कहा है - उक्त बीस असमाधि स्थानों से दूर रहकर श्रुत, विनय, आचार, एवं तप इन चार प्रकार की समाधि में स्थित रहना चाहिए। वस्तुतः एकचर्या का लाभ उसी को मिल सकता है, जो पहले अपने आपको एकचर्या के योग्य बना ले। अन्यथा एकचर्या से लाभ के बदले हानि ही अधिक उठानी पड़ सकती है।240 सूत्रकृतांग की अमरसुखबोधिनी व्याख्या में अत्यन्त पौरुषवन्त एवं अतिएकान्तप्रिय को ही एकलविहारी बनने का निर्देश मिलता है। वहाँ अनेक शर्तों के मध्य ये सार द्रष्टव्य है"
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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