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________________ आहार चर्या 221 यहाँ पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्रमणों के भोजन में कारणवश आ पडे जीव जंतु को हटाकर उस ही भोजन को स्वीकृत कर लिया है परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में ऐसी दशा श्रमण के लिए अन्तराय होती है, और वे भोजन को त्याग कर प्रायश्चित्त लेते हैं जैसा कि पूर्व में कहा था। आचारांग सूत्र में 10 वें अध्याय के 10 वें उद्देश्य में "से भिक्खू वा सेज्ज पुण जाणेज्जा, बहुअडिठ्यं मंसंवा मच्छवा, बहुकटंग-------इत्यादि का प्राचीन आचार्यों विद्वानों ने तो माँसपरक अर्थ किया है, परन्तु अभी कुछ वर्षों से व्याख्याकार वनस्पतिपरक अर्थ करने लगे हैं। इसी प्रकार दशवकालिक में बहु अठ्ठियं पुग्गलं अणिमिसं व बहुकंटयं । अच्छियं तिदुयं बिल्लं उच्छुखंडचसिंवति। इन गाथाओं में पूर्ववत् ही स्थिति है। श्वेताम्बर सम्मत इन आगमों के व्याख्याकारों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वेदों में भगवान ऋषभ से सम्बन्धित प्रशंसात्मक लेख देखकर पश्चात्वर्ती विद्वानों ने तो उन लेखों को ही उड़ा दिया, या उनका अर्थ वे अपने ही शंकर आदि भगवानों में समायोजित करने लगे। टोडरमल के मोक्षमार्ग प्रकाशक में जो वेद सम्बन्धी उद्धरण दिये हैं, वे वर्तमान कालीन संस्करणों में देखने को नहीं मिलते हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बरीय आगमों में पूर्व के सभी मध्य आचार्य उन माँस परक शब्दों का अर्थ माँस परक ही करते रहे लेकिन जब अभी बीसवीं सदी में काफी पढ़ा जाने एवं जन-सामान्य के हाथों में भी जाने लगा तब इस तर्क प्रधान युग में उन आगमों को प्रसारित करने के उद्देश्य से उनका अर्थ बदलकर कुछ अपने शब्द संयोजित कर आगम प्रकाशित किये जाने लगे। इन श्वे. आगमों के पूर्वापर संस्करणों पर एक व्यापक अनुशीलन की महती आवश्यकता है। अस्तु। यापनीय सम्प्रदाय के आचार्य अपराजित सूरि ने सर्वथा त्याज्य दूषित आहार के विषय में कहा है कि, माँस, मधु, मक्खन, बिना कटा फल, मूल, पत्र, अंकुल, कन्द तथा इन सबसे छुआ हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस गन्ध से विकृत दुर्गन्धित, पुष्पित, पुराना, जीव-जन्तु युक्त भोजन न तो किसी को देना चाहिए, न स्वयं खाना चाहिए और न ही छूना चाहिए। टूटे या फूटे हुए करछुए आदि से दिया हुआ आहार ग्रहण न करें। कपाल, जूठे, पात्र, कमल तथा केले आदि के पत्तों में रखा हुआ आहार भी ग्रहण न करें। 90 इस प्रकार श्रमण सभी दोषों से रहित विशुद्ध आहार ग्रहण करें।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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