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________________ आहार चर्या 207 1. उदराग्नि प्रशमन भिक्षावृत्ति - इसका अर्थ है कि जितने आहार से उदर की क्षुधाग्नि शान्त हो उतना ही आहार ग्रहण करना। शरीर को तपश्चरणादि के योग्य बनाये रखने के उद्देश्य से क्षुधारूपी अग्नि को शान्त करने के लिए आहार ग्रहण करना एवं उसमें अच्छे-बुरे का स्वाद का प्रयोजन नहीं है।133 अक्षप्रेक्षण - जैसे बैलगाड़ी आदि वाहनों को सुगमता से चलाने के लिए उस गाड़ी की धुरी पर तेलादि लगाया जाता है। उसी प्रकार मुनि इस शरीर को आत्मसिद्धि रूप धर्म का साधन करने के उद्देश्य से प्राण धारण के निमित्त आहार ग्रहण करते हैं। क्योंकि धर्म साधन के लिए प्राण और मोक्ष प्राप्ति के निमित्त धर्म धारण किया जाता है।134 शान्त्याचार्य ने भी कहा है कि जैसे गाड़ी के पहिए के धुरी को भार-वाहन की दृष्टि से तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगाया जाता है। वैसे ही गुणभार वहन की दृष्टि से ब्रह्मचारी आहार करे, शरीर को पोषण दे।135 गोचरी - जैसे गाय की दृष्टि आभूषणों से सुसज्जित सुन्दर युवति के श्रृंगार पर नहीं, अपितु उसके द्वारा लायी गयी घास पर ही रहती है, वैसे ही साधु को भी दाता तथा उसके वेश एवं भिक्षास्थल की सजावट आदि के प्रति या आहार के रूखे-चिकनेपन आदि पर ध्यान दिये बिना या उन सबकी अपेक्षा किये बिना आहार-ग्रहण करना गोचरी या गवेषणाआहार वृत्ति है। 36 दशवकालिक की जिनदास कृत चूर्णि में भी गोचरी/आहार वृत्ति के विषय में इसी प्रकार के उदाहरण देखने को मिलता है "जैसे एक युवा वणिक् स्त्री सुन्दर वस्त्रादिक से अलंकृत हो गोवत्स को आहार देती है। किन्तु वह गोवत्स उसके हाथ से उस आहार को ग्रहण करता हुआ भी उस स्त्री के रंग- रूप, आभरणादि के शब्द, गंध और स्पर्श में मूर्च्छित नहीं होता है। इसी प्रकार साधु भी विषयादि शब्दों में अमूछित रहता हुआ आहारादि की गवेपणा में प्रवृत्त होता है।137 श्वे. साधु श्री हरिभद्र ने गोचर शब्द का अर्थ "गाय की तरह चरना-भिक्षाटन करना किया है। जैसे गाय अच्छी-बरी घास का भेद किये बिना चरती है। वैसे ही साध को उत्तम, मध्यम और अधम कुल का भेद न करते हुए तथा प्रिय-अप्रिय आहार में राग-द्वेष न करते हुए भिक्षाटन करना चाहिए।138 श्वेताम्बर परम्परा के ही अन्य आचार्यों ने भी कहा है कि गोचर का अर्थ है भ्रमण; जिस प्रकार गाय शब्दादि विषयों में गद्ध नहीं होती हुर्या आहार ग्रहण करती है, उसी प्रकार साधु भी विषयों में आसक्त न होते हुए उद्गम-उत्पादन और एपणा के दोषों से रहित भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं।139 इस तरह की गोचर आहार वृत्ति को गोचरी कहते हैं।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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