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________________ आहार चर्या 205 शरीर से रागद्वेप का तो अभाव है, अतः जिसमें मुनियों का ध्यान-अध्ययन सधे वही वे करते हैं।116 उपर्युक्त उद्धरण से इस भ्रान्ति का काफी निराकरण होता है कि जैन श्रमण शरीर का शोषण करते हैं, शरीर को कृश करने का भाव तो द्वेष मूलक है, अतः अनशनादिक वृत्तियों से आत्मोत्थान ही मुख्य होता है। आहार ग्रहण करते समय यही विचार प्रमुख होता है कि, इससे शरीर स्थिर रहेगा, जिससे कि हम तपश्चरण आदि करके आत्महित के साथ सदुपदेशादि के द्वारा दूसरों का भी हित कर सकेंगे। इतने पर भी वे स्वाभिमानी श्रमण अपने शरीरकृत परवशता पर आहार मात्र के ग्रहण करने पर भी लज्जा अनुभव करते है।117 आचार्य वट्टकेर के अनुसार बल, आयु, शरीर, तेज इन सबको वृद्धि और स्वाद के उद्देश्य से श्रमण आहार नहीं करते118। अपितु वे ज्ञान, संयम, और ध्यान की साधना के निमित्त आहार ग्रहण करते हैं।119 अतः उनका ठण्डा, गरम, स्खा, सूखा, चिकना अथवा विकार रहित, नमक रहित या नमक सहित भोजन के प्रति आस्वादभाव होता है120 क्योंकि वे गुणरत्नों को ढोने वाली शरीररूपी गाड़ी के लिए समाधि नगर की ओर ले जाने की इच्छा रखने वाले होने से, जठराग्नि का दाह शमन करने के निमित्त औषधि की तरह या गाड़ी में आँगन देने की तरह अन्न आदि आहार को बिना स्वाद के ग्रहण करते हैं।121 उत्तराध्ययन (श्वे. ) में कहा है कि भिक्षा जीवी मुनि संयमित जीवन की यात्रा के लिए आहार की गवेषणा करे, किन्तु रसों में मूर्च्छित न होवे। 22 भगवती सूत्रकार कहते हैं कि, प्रासुक आहार करता हुआ साधु आयुकर्म को छोडकर शेष सात कर्मों के बन्धनों को ढीला करता है। अतः उनका आहार निरवद्य एवं संयम को पुष्ट करने वाला है। 23 इसी कारण ज्ञाताधर्मकथा में कहा कि श्रमण शरीर के द्वारा ज्ञानदर्शन चरित्र का परिवहन करने एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं, न कि शरीर को पुष्ट करने के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं।124 निष्कर्ष रूप में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म इस देहालय में ही होता है। अतः उसे भोजन-पान आदिक के द्वारा स्थित रखना पड़ता है। परन्तु इस दिशा में प्रवृत्ति वहीं तक ही श्रेयस्कर है, जहाँ तक कि इन्द्रियाँ अपने आधीन रहें। रयणसार के अनुसार जो साधु ज्ञान और संयम की वृद्धि के लिए तथा ध्यान और अध्ययन के निमित्त यथालाभ भोजन ग्रहण करता है वह साधु मोक्षमार्ग में रत है। 25
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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