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आहार चर्या
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अर्थ में उपयोग स्थिर करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ना चाहिए।
पश्चात्, पश्चिम रात्रि में रात्रिक प्रतिक्रमण करते हैं। पुनः, रात्रि योग निष्ठापन करते हैं। पूर्व रात्रिक स्वाध्याय को विसर्जन करके मध्य रात्रि के पहले की दो घड़ी और पश्चात् की दो घड़ी ऐसे चार घड़ी (1.30 घंटे) तक अस्वाध्याय काल में शरीर के श्रम को दूर करने के लिए निद्रा करते हैं। इस प्रकार श्रमण की नित्य अहोरात्रिक चर्या व्यतीत होती
नैमित्तिक क्रियाएँ :
नैमित्तिक क्रियाविधि में भक्ति पूर्वक अष्टमी चतुर्दशी, पाक्षिक प्रतिक्रमण, अपूर्व चैत्यवंदनादि, सन्यासविधि, श्रुत-पंचमी अष्टाह्निका महोत्सव, वर्षायोगग्रहण वीर निर्वाण विधि करते हैं। इन सब क्रियाओं में यथायोग्य भक्तियों का प्रयोग करते हैं। भक्तिपाठ के बिना कोई क्रिया सम्पन्न नहीं होती है।
नित्यनैमित्तिक क्रियाओं का वर्णन मूलाचार आदि ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होता है। आशाधरजी ने ही इनका पृथकतः वर्णन किया है। शायद इनके समय तक श्रमण वर्ग काफी शिथिल हो चुका था। अतः उनको विभिन्न धार्मिक आयोजनों में लगाये रखने के उद्देश्य से इन सब का विशेष वर्णन विभिन्न प्रतिबन्धों को लगाकर किया, ताकि श्रमण इन कार्यों में ही लगा रहे, लौकिक कार्यों की ओर प्रेरित न हो सके।
आहारचर्या :
कायस्थित्यर्थमाहारः कायोशानार्थमिष्यते। ज्ञानं कर्मविनाशाय तन्नाशे परमं सुख।।
अर्थात् आहार से शरीर की स्थिति होती है, शरीर की स्थिति होने से जीव ज्ञान प्राप्ति की इच्छा रखता है, ज्ञान प्राप्ति से कर्मों का नाश होता है और कर्मों के नाश से ही अनन्त अविचल आत्मीय सुख प्राप्त होता है। अतः आहार को ग्रहण कर मुनिगणों को भी शरीर की स्थिति कायम रखनी पड़ती है। यद्यपि जैन श्रमण आहार ग्रहण करते हैं, परन्तु वहाँ पर भी उनका मूल उद्देश्य अनशनादि अन्तरंग-वहिरंग द्वादशविध तपों को पुष्ट करना होता है। इसी कारण श्रमण की आहारचर्या में उसकी विशुद्धता का विशेष महत्व है। प्रत्येक व्यक्ति का आहार, उसका प्रकार एवं उद्देश्य आदि विभिन्न दृष्टिकोण उस व्यक्ति के आचार-विचार- व्यवहार आदि उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को प्रभावित करता है। एक लोकोक्ति है कि "जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन" परन्तु यथार्थ तो यह है कि "जैसा होवे मन, वैसा खावे अन्न" अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपने आचरणगत मानसिकता